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________________ २८४ समयसार (हरिगीत) हो ज्ञान परोक्ष पदार्थ का बस जिसतरह उपदेश से। बस उसतरह ही जीव को भी जानते उपदेश से ।। परोक्षज्ञानी कौन बुध ऐसा कहे नादान सम । मैं आतमा को जानता हूँ केवली भगवान सम ।। जिसप्रकार किसी परोक्ष पदार्थ को उपदेश से सुनकर या देखकर (पढ़कर) जाना जाता है; उसीप्रकार जीव को भी उपदेश से सुनकर या देखकर (शास्त्रों से पढ़कर) ग्रहण किया जाता है। इसी को 'आत्मा को देखा - आत्मा को जाना' - ऐसा कहा जाता है। वर्तमानकाल में परोक्षज्ञान में प्रवर्तित होने पर भी कौन बुद्धिमान साधु यह कहेगा कि मैंने आत्मा को केवली भगवान के समान प्रत्यक्ष जान लिया है? तात्पर्य यह है कि मति-श्रुत ज्ञान के परोक्ष होने से पंचमकाल के मति-श्रुतज्ञानधारी मुनिराज ऐसा कैसे कह सकते हैं कि उन्होंने आत्मा को केवली भगवान के समान प्रत्यक्ष जान लिया है। ___मति-श्रुतज्ञान में आत्मा को जानने की प्रक्रिया यह है कि सबसे पहले देशनालब्धि के माध्यम से आत्मा जाना जाता है, गुरुमुख से सुनकर या परमागम को पढ़कर आत्मा का स्वरूप समझा जाता है। उसके बाद अनुभ आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञात होता है। यह अनुभव प्रत्यक्ष केवली भगवान के समान प्रत्यक्ष नहीं है; क्योंकि मति-श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान हैं और यह अनुभव भी मति-श्रुतज्ञान में ही हुआ है। जिसप्रकार केवलज्ञान में आत्मप्रदेशों का साक्षात्कार होता है, उसप्रकार अनुभवज्ञान में आत्मप्रदेशों का साक्षात्कार नहीं होता। आत्मा असंख्यप्रदेशी है, अनन्तगुणवाला है; मति-श्रुतज्ञान में यह तो गुरु के उपदेश या फिर शास्त्रों को पढ़कर ही जाना जाता है। अनुभवप्रत्यक्ष में आत्मानंद का निर्विकल्प वेदन ही होता है, अनन्तगुण या असंख्यप्रदेश गिनने में नहीं आते । इसीकारण मति-श्रुतज्ञानवाले ज्ञानियों का आत्मा को जानना अनुभवप्रत्यक्ष कहा जाता है। ___ आत्माश्रित होने से और आनन्द का निर्विकल्प विशद (निर्मल) वेदन होने से इसे अनुभवप्रत्यक्ष कहा जाता है; किन्तु केवलज्ञान की अपेक्षा अविशद (अनिर्मल) होने से परोक्ष भी कहा जाता है। दोनों अपेक्षाओं को यथार्थ समझना ही समझदारी है। ___ इन गाथाओं में से दूसरी गाथा की टीका लिखते हुए आचार्य जयसेन 'किंच विस्तरः' लिखकर जो बात लिखते हैं, उसका भाव इसप्रकार है - ___ “यद्यपि केवलज्ञान की अपेक्षा रागादिविकल्परहित भावश्रुतज्ञान को शुद्धनिश्चयनय से परोक्ष कहा जाता है; तथापि इन्द्रियमनोजनित सविकल्पज्ञान की अपेक्षा उसे प्रत्यक्ष भी कहा जाता है। दूसरी बात यह है कि चतुर्थकाल में केवली भगवान क्या आत्मा को हाथ में ग्रहण करके दिखाते हैं ? वे भी दिव्यध्वनि के द्वारा कहकर ही जाते हैं। दिव्यध्वनि सुनने के काल में श्रोताओं
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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