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आस्रवाधिकार जायेगा, खतरा नहीं होगा; क्योंकि मुट्ठी में रखा हुआ जहर अपना असर दिखाने में असमर्थ होता है।
(उपजाति) भावानुवाभावमयं प्रपन्नो द्रव्यास्रवेभ्य: स्वत एव भिन्नः।
ज्ञानी सदा ज्ञानमयैकभावो निरास्रवो ज्ञायक एक एव ।।११५।। कथं ज्ञानी निराम्रव इति चेत् -
चउविह अणेयभेयं बंधते णाणदंसणगुणेहिं। समए समए जम्हा तेण अबंधो ति णाणी दु।।१७०।। जम्हा दुजहण्णादोणाणगुणादो पुणो वि परिणमदि। अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ।।१७१।।
चतुर्विधा अनेकभेदं बध्नंति ज्ञानदर्शनगुणाभ्याम् । समये समये यस्मात् तेनाबंध इति ज्ञानी तु ।।१७०।। यस्मात्तु जघन्यात् ज्ञानगुणात् पुनरपि परिणमते ।
अन्यत्वं ज्ञानगुण: तेन तु स बंधको भणितः ।।१७१।। उसीप्रकार द्रव्यकर्म जबतक उदय में न आये, तबतक कार्यकारी नहीं होता; क्योंकि सत्ता में पड़ा हुआ द्रव्यकर्म तो पृथ्वी के पिण्ड के समान अकिंचित्कर ही होता है, अकार्यकारी ही होता है। अब इसी अर्थ का पोषक कलश काव्य कहते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(दोहा) द्रव्यास्रव से भिन्न है, भावास्रव को नाश ।
सदा ज्ञानमय निरास्रव, ज्ञायकभाव प्रकाश ।।११५।। द्रव्यास्रवों से स्वभाव से भिन्न और भावास्रवों के अभाव को प्राप्त सदा एक ज्ञानमय भाववाला ज्ञानी निरास्रव ही है, मात्र एक ज्ञायक ही है।
यहाँ यह कह रहे हैं कि ज्ञानी द्रव्यास्रवों से तो स्वभावत: ही भिन्न है और उसने भावास्रवों का अभाव कर लिया है। इसप्रकार द्रव्यास्रवों और भावास्रवों के अभाव से ज्ञानी सदा निरास्रव ही है।
विगत गाथा और कलश में कहा था कि ज्ञानी सदा निरास्रव ही है। अत: जिज्ञासुओं के हृदय में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि बंधनबद्ध ज्ञानी निराम्रव कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में ही आगामी गाथाओं का जन्म हुआ है, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) प्रतिसमय विध-विध कर्मको सब ज्ञान-दर्शन गणों से। बाँधे चतुर्विध प्रत्यय ही ज्ञानी अबंधक इसलिए ।।१७०।। ज्ञानगुण का परिणमन जब हो जघन्यहि रूप में।
अन्यत्व में परिणमे तब इसलिए ही बंधक कहा ।।१७१।। चार प्रकार के द्रव्यास्रव (द्रव्यप्रत्यय) ज्ञानदर्शन गुणों के द्वारा समय-समय पर अनेकप्रकार