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________________ २४८ समयसार कर्म विरहित जीव वे संसार-सागर पार हों।।११।। (मन्दाक्रान्ता) भेदोन्मादं भ्रमरसभरान्नाटयत्पीतमोहं मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन । हेलोन्मीलत्परमकलया सार्धमारब्धकेलि ज्ञानज्योति: कवलिततमः प्रोज्जजृम्भे भरेण ।।११२।। कर्मनय के अवलंबन में तत्पर कर्म के पक्षपाती जीव संसार-सागर में डूबे हए हैं; क्योंकि वे ज्ञान (आत्मा) को नहीं जानते और ज्ञाननय के इच्छुक पक्षपाती जीव भी डूबे हुए हैं। क्योंकि वे स्वच्छंदता से अत्यन्त मंद उद्यमी हैं। तात्पर्य यह है कि वे स्वरूप प्राप्ति का पुरुषार्थ नहीं करते और विषय-कषाय में वर्तते हैं; किन्तु जो जीव निरन्तर ज्ञानरूप होते हुए, ज्ञानरूप परिणमित होते हए कर्म नहीं करते, शुभाशुभ कर्मों से विरक्त रहते हैं और कभी प्रमाद के वश भी नहीं होते; वे जीव विश्व के ऊपर तैरते हैं। इसप्रकार इस कलश में यह कहा गया है कि कुछ लोग आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जाने बिना, आत्मानुभव किये बिना; व्रत-उपवासादि क्रियायें करके ही अपने को धर्मात्मा मान लेते हैं। ऐसे जीव कर्मनय के पक्षपाती हैं, एकान्ती हैं; इसकारण वे संसार-सागर में डूबनेवाले ही हैं। __ दूसरे कुछ लोग ऐसे भी होते हैं कि जो आत्मा की बातें तो बहुत करते हैं, पर आत्मा का अनुभव उन्हें नहीं होता। आत्मा के अनुभव बिना ही स्वयं को ज्ञानी मान लेनेवाले वे लोग स्वच्छन्द हो जाते हैं, प्रमादी हो जाते हैं; भूमिकानुसार होनेवाले सदाचरण की भी उपेक्षा करते हैं। ऐसे लोग ज्ञाननय के पक्षपाती हैं, एकान्ती हैं; इसकारण संसार में ही भटकनेवाले हैं। ज्ञानी धर्मात्मा तो आत्मज्ञानी होते हैं, आत्मानुभवी होते हैं और भूमिकानुसार उनका जीवन भी पवित्र होता है, सदाचारी होता है। ऐसा होने पर भी वे अपने उस सदाचरण को, भूमिकानुसार होनेवाले शुभभावों को धर्म नहीं मानते। उनकी दृष्टि में धर्म तो आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाला निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मल परिणमन ही है। इसप्रकार यहाँ पुण्यपापाधिकार समाप्त हो रहा है। अत: अन्त मंगलाचरण के रूप में आचार्य अमृतचन्द्र एक कलश लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) जग शुभ अशुभ में भेद माने मोह मदिरापान से। पर भेद इनमें है नहीं जाना है सम्यग्ज्ञान से ।। यह ज्ञानज्योति तमविरोधी खेले केवलज्ञान से । जयवंत हो इस जगत में जगमगे आतमज्ञान से ।।११२।। मोहरूपी मदिरा के पान से उत्पन्न भ्रमरस के भार से शुभाशुभ कर्म के भेदरूपी उन्माद को नचानेवाले समस्त शुभाशुभ कर्मों को अपने ही बल द्वारा जड़मूल से उखाड़कर अज्ञानरूपी अंधकार को नाश करनेवाली सहज विकासशील, परमकला केवलज्ञान के साथ क्रीड़ा करनेवाली
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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