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पुण्यपापाधिकार अथैकमेव कर्म द्विपात्रीभूय पुण्यपापरूपेण प्रविशति -
(द्रुतविलम्बित) तदथ कर्म शुभाशुभभेदतो द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन् । ग्लपितनिर्भरमोहरजा अयं स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लवः ।।१००।।
मंगलाचरण
(दोहा) पुण्य-पाप दोऊ करम, शिवमग रोकनहार।
पुण्य-पाप से पार है, आतम धरम अपार ।। जीवाजीवाधिकार में वर्णादि से लेकर गुणस्थानपर्यन्त भावों से भगवान आत्मा का एकत्व और ममत्व तथा कर्ताकर्माधिकार में उन्हीं भावों से कर्तृत्व और भोक्तृत्व छुड़ाया है। - इसप्रकार अबतक भगवान आत्मा को परपदार्थ और उनके आश्रय से अपने ही आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेषादि भावों से एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व छुड़ाकर आत्मसम्मुख करने का प्रयास किया गया है।
अब इस पुण्यपापाधिकार में यह बताते हैं कि मुक्ति के मार्ग में पाप के समान ही पुण्य भी हेय है।
इस अधिकार को आरंभ करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में जो वाक्य लिखते हैं, उसका भाव इसप्रकार है -
“अब एक ही कर्म पुण्य और पाप - इन दो पात्रों के रूप में रंगमंच पर प्रवेश करता है।"
ध्यान रहे, यहाँ पात्र (अभिनेता) एक है और उसने रूप दो धारण कर रखे हैं। जिसप्रकार एकपात्रीय नाटकों में एक ही पात्र अनेक रूपों में बात करता है; उसीप्रकार यहाँ एक ही कर्म पुण्य और पाप - इन दो रूपों में प्रस्तुत हो रहा है।
जीवाजीवाधिकार में पात्र दो थे और उन्होंने मिलकर एक रूप धारण किया था; पर यहाँ उससे विपरीत पात्र (अभिनेता) एक कर्म है और उसने पुण्य और पाप - ये दो रूप धारण कर रखे हैं, वह यहाँ डबलरोल में है। मंगलाचरण के छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) शुभ अर अशुभ के भेद से जो दोपने को प्राप्त हो। वह कर्म भी जिसके उदय से एकता को प्राप्त हो ।। जब मोहरज का नाश कर सम्यक् सहित वह स्वयं ही।
जग में उदय को प्राप्त हो वह सुधानिर्झर ज्ञान ही ।।१०।। अब शुभ और अशुभ के भेद से दोपने को प्राप्त उस कर्म को एकरूप करते हुए जिसने मोहरज को अत्यन्त ही दूर कर दिया है; ऐसा यह ज्ञानरूपी सुधाकर स्वयं ही उदय को प्राप्त होता है।