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समयसार उन्हें बंध ही नहीं माना गया है। जहाँ चारित्रमोह संबंधी बंध की चर्चा होती है, वहाँ उन्हें भी बंध का कारण कहा जाता है और कर्तानय से आत्मा को उनका कर्ता भी कहा जाता है। वह ज्ञानीअज्ञानी दोनों पर ही समानरूप से घटित होता है। __ अब आगामी कलश में आचार्यदेव आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जब वस्तुस्थिति इतनी स्पष्ट है। फिर भी न जाने यह मोह क्यों नाचता है ? मूल कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(शार्दूलविक्रीडित ) कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्तरि द्वंद्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः। ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थिति
र्नेपथ्ये बत नानटीति रभसा मोहस्तथात्येष किम् ।।१८।। अथवा नानट्यतां तथापि -
(मन्द्राक्रान्ता) कर्ता कर्ता भवति न यथा कर्म कर्मापि नैव ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गल: पुद्गलोऽपि । ज्ञानज्योतिवलितमचलं व्यक्तमंतस्तथोच्चैश्चिच्छक्तीनां निकरभरतोऽत्यंतगंभीरमेतत् ।।९९।।
(हरिगीत ) कर्म में कर्ता नहीं अर कर्म कर्ता में नहीं। इसलिए कर्ताकरम की थिति भी कभी बनती नहीं।। कर्म में है कर्म ज्ञाता में रहा ज्ञाता सदा।
यदि साफ है यह बात तो फिर मोह है क्यों नाचता?।।९८।। निश्चयनय से न तो कर्ता कर्म में है और न कर्म कर्ता में ही है। यदि इसप्रकार परस्पर दोनों का निषेध किया जाये तो फिर कर्ताकर्म की क्या स्थिति होगी? अर्थात् जीव और पुद्गल के कर्ताकर्मपना कदापि नहीं हो सकेगा। इसप्रकार ज्ञाता सदा ज्ञाता में ही है और कर्म सदा कर्म में ही है। यद्यपि वस्तु की ऐसी स्थिति एकदम प्रगट है; तथापि अरे ! यह मोह नेपथ्य में अत्यन्त वेगपूर्वक क्यों नाच रहा है ? - यह आश्चर्य और खेद की बात है।
इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि सम्पूर्ण कर्ताकर्माधिकार के मंथन से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि यद्यपि राग-द्वेष-मोहरूप भावकर्मों का कर्ता अज्ञानी आत्मा होता है; तथापि ज्ञानावरणादि जड़कर्मों और शरीरादि नोकर्मों का कर्ता तो ज्ञानी व अज्ञानी कोई भी जीव नहीं है। आगम में जहाँ भी आत्मा को जडकर्मों और नोकर्मों का कर्ता कहा गया हो, वह सब असद्भूत