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________________ १९७ कर्ताकर्माधिकार वह भाव भी ज्ञानी के ज्ञानमय ही होता है; क्योंकि ज्ञानी को स्वपर के विवेक से सर्व परभावों से भिन्न आत्मा की ख्याति सम्यक्प्रकार से अत्यन्त उदय को प्राप्त हुई है तथा वह भाव अज्ञानी के अज्ञानमय ही होता है; क्योंकि उसे सम्यक्प्रकार से स्वपर का विवेक न होने से परपदार्थों से भिन्न आत्मा की ख्याति अत्यन्त अस्त हो गई है। अब यह कहते हैं कि ज्ञानमय और अज्ञानमय भावों से क्या होता है ? सम्यक्प्रकार से स्वपर का विवेक न होने से, पर से भिन्न आत्मा की ख्याति अत्यन्त अस्त एव भाव: स्यात्, तस्मिंस्तु सति स्वपरयोरेकत्वाध्यासेन ज्ञानमात्रात्स्वस्मात्प्रभ्रष्टः पराभ्यां रागद्वेषाभ्यां सममेकीभूय प्रवर्तिताहंकारः स्वयं किलैषोऽहं रज्ये रुष्यामीति रज्यते रुष्यति च, तस्मादज्ञानमयभावादज्ञानी परौ रागद्वेषावात्मानं कुर्वन् करोति कर्माणि । ज्ञानिनस्तु सम्यक्स्वपरविवेकेनात्यंतोदितविविक्तात्मख्यातित्वाद्यस्मात् ज्ञानमय एव भाव: स्यात्, तस्मिंस्तु सति स्वपरयो नात्वविज्ञानेन ज्ञानमात्रे स्वस्मिन्सुनिविष्टः पराभ्यां रागद्वेषाभ्यां पृथग्भूततया स्वरसत एव निवृत्ताहंकारः स्वयं किल केवलं जानात्येव न रज्यते न च रुष्यति, तस्मात् ज्ञानमयभावात् ज्ञानी परौ रागद्वेषावात्मानमकुर्वन्न करोति कर्माणि ।।१२६-१२७ ।। (आर्या) ज्ञानमय एव भावः कुतो भवेत् ज्ञानिनो न पुनरन्यः। अज्ञानमयः सर्वः कुतोऽयमज्ञानिनो नान्यः ।।६६।। होने से; अज्ञानी के अज्ञानमय भाव ही होते हैं। ऐसी स्थिति में स्वपर के एकत्व के अभ्यास के कारण ज्ञानमात्रभाव से भ्रष्ट और राग-द्वेष भाव से एकाकार होकर अहंकार में प्रवर्तमान 'मैं रागी हूँ, मैं द्वेषी हूँ, मैं राग-द्वेष करता हूँ' - इसप्रकार मानता हुआ अज्ञानी रागी-द्वेषी होता है, अज्ञानमय भाव के कारण स्वयं को राग-द्वेषरूप करता हुआ कर्मों को करता है।। ज्ञानी के तो सम्यक्प्रकार से स्वपर के विवेक के द्वारा पर से भिन्न आत्मा की ख्याति अत्यन्त उदय को प्राप्त हुई होने से ज्ञानमय भाव ही होता है। ऐसी स्थिति में स्वपर के भिन्नत्व के विज्ञान के कारण ज्ञानमात्र निजभाव में भलीप्रकार स्थित, पररूप राग-द्वेषादि भावों से भिन्नत्व के कारण अहंकार से निवृत्त ज्ञानी मात्र जानता ही है, रागी-द्वेषी नहीं होता, राग-द्वेष नहीं करता। इसप्रकार ज्ञानमय भाव के कारण ज्ञानी स्वयं को राग-द्वेषरूप न करता हुआ कर्मों को नहीं करता।" ___ इसप्रकार इन गाथाओं में यह स्पष्ट किया गया है कि ज्ञानी आत्मा अपने ज्ञानभावों का कर्ता होता है और अज्ञानी अज्ञानभावों का कर्ता होता है। इन गाथाओं के बाद जो कलश आता है, उसमें यह प्रश्न उठाया गया है कि अज्ञानी अज्ञानभावों का ही एवं ज्ञानी आत्मा ज्ञानभावों का ही कर्ता क्यों होता है ? इस प्रश्न का उत्तर आगामी गाथाओं में दिया जायेगा। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) ज्ञानी के सब भाव शुभाशुभ ज्ञानमयी हैं। अज्ञानी के वही भाव अज्ञानमयी हैं।।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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