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कर्ताकर्माधिकार
१८९ उपयोग जीव अनन्य ज्यों यदि त्यों हि क्रोध अनन्य हो। तो जीव और अजीव दोनों एक ही हो जायेंगे ।।११३।। यदि जीव और अजीव दोनों एक हों तो इसतरह। का दोष प्रत्यय कर्म अर नोकर्म में भी आयगा ।।११४।। क्रोधान्य है अर अन्य है उपयोगमय यह आतमा ।
तो कर्म अरु नोकर्म प्रत्यय अन्य होंगे क्यों नहीं? ||११५।। यदि यथा जीवस्व तन्मक्त्वाज्जीवादनन्य उपयोगस्तथा जडः क्रोधोऽप्यनन्य एवेत्ति प्रतिपत्तिस्तदा चिद्र्पजडयोरनन्यत्वाजीवस्योपयोगमयत्ववजडक्रोधमयत्वापत्तिः। तथा सति तु य एव जीवः स एवाजीव इति द्रव्यांतरलुप्तिः । __एवं प्रत्ययनोकर्मकर्मणामपि जीवादनन्यत्वप्रतिपत्तावयमेव दोषः। अथैतद्दोषभयादन्य एवोपयोगात्मा जीवोऽन्य एव जडस्वभाव: क्रोधः इत्यभ्युपगम: तर्हि यथोपयोगात्मनो जीवादन्यो जडस्वभावः क्रोधः तथा प्रत्ययनोकर्मकाण्यप्यन्यान्येव जडस्वभावत्वाविशेषात् ।
नास्ति जीवप्रत्यययोरेकत्वम् ।।११३-११५ ।। जिसप्रकार जीव से उपयोग अनन्य है; उसीप्रकार यदि क्रोध भी जीव से अनन्य हो तो जीव और अजीव में अनन्यत्व हो जायेगा, एकत्व हो जायेगा।
ऐसा होने पर इस जगत में जो जीव है, वही नियम से अजीव ठहरेगा और इसीप्रकार का दोष प्रत्यय, कर्म और नोकर्म के साथ भी आयेगा।
यदि इस भय से तू यह कहे कि क्रोध अन्य है और उपयोगस्वरूपी जीव अन्य है तो जिसप्रकार क्रोध जीव से अन्य होगा; उसीप्रकार प्रत्यय, कर्म और नोकर्म भी जीव से अन्य सिद्ध होंगे।
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"जिसप्रकार जीव के उपयोगमयी होने के कारण जीव से उपयोग अनन्य है; उसीप्रकार यदि ऐसी प्रतिपत्ति की जाये कि जड़ क्रोध भी जीव से अनन्य ही है तो चैतन्यरूप जीव और जड़ क्रोध के अनन्यत्व के कारण जीव में उपयोगमयता के समान जड़क्रोधमयता भी आ जायेगी। ऐसा होने पर जो जीव है, वही अजीव सिद्ध होगा; इसप्रकार अन्य द्रव्य का लोप हो जायेगा।
इसीप्रकार का दोष प्रत्यय, कर्म और नोकर्म को जीव से अनन्य मानने पर आयेगा।
इस दोष के भय से यदि यह स्वीकार किया जाये कि उपयोगमयी जीव अन्य है और जड़स्वभावी क्रोध अन्य है; तो जिसप्रकार उपयोगमयी जीव जड़स्वभावी क्रोध से अन्य है; उसीप्रकार जड़स्वभावी प्रत्यय, कर्म और नोकर्म भी उपयोगमयी जीव से अन्य ही सिद्ध होंगे; क्योंकि उनके जड़स्वभावत्व में कोई अन्तर नहीं है। जिसप्रकार क्रोध जड़ है; उसीप्रकार प्रत्यय, कर्म और नोकर्म भी जड़ हैं।
इसप्रकार जीव और प्रत्ययों में एकत्व नहीं है।"
इन गाथाओं में यह कहा गया है कि जो मिथ्यात्वादि चार प्रत्यय अथवा तेरह गुणस्थानरूप तेरह प्रत्यय बंध के कारण हैं, आस्रव हैं; वे उपयोगमयी आत्मा से भिन्न हैं, इसकारण आत्मा को बंध का कर्ता नहीं माना जा सकता है।