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कर्ताकर्माधिकार
१८७ इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“पुद्गल कर्म का कर्ता वास्तव में तो एक पुद्गलद्रव्य ही है। उस पुद्गलद्रव्य के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग - ये चार प्रकार हैं। ये चार प्रकार के बंध के सामान्य हेतु होने से बंध के कर्ता हैं। इनके ही भेद करने पर मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली पर्यन्त तेरह प्रकार होते हैं, जिन्हें तेरह गुणस्थान कहते हैं, विशेष भेद के विचार करने पर ये तेरह कर्ता हैं।
कर्तारः। अथैते पुद्गलकर्मविपाकविकल्पत्वादत्यंतमचेतना: संतस्त्रयोदश कर्तारः केवला एव यदि व्याप्यव्यापकभावेन किंचनापि पुद्गलकर्म कुर्युस्तदा कुयुरव, किं जीवस्यात्रापतितम् ?
अथायं तर्कः - पुद्गलमयमिथ्यात्वादीन् वेदयमानो जीवः स्वयमेव मिथ्यादृष्टिर्भूत्वा पुद्गलकर्म करोति । स किलाविवेकः, यतो न खल्वात्मा भाव्यभावकभावाभावात् पुद्गलद्रव्यमयमिथ्यात्वादिवेदकोऽपि, कथं पुनः पुद्गलकर्मण: कर्ता नाम ? ___ अथैतदायातम् यतः पुद्गलद्रव्यमयानां चतुर्णां सामान्यप्रत्ययानां विकल्पास्त्रयोदश विशेषप्रत्यया गुणशब्दवाच्या: केवला एव कुर्वंति कर्माणि, ततः पुद्गलकर्मणामकर्ता जीवो गुणा एव तत्कर्तारः । ते तु पुद्गलद्रव्यमेव । तत: स्थितं पुद्गलकर्मण: पुद्गलद्रव्यमेवैकं कर्तृ ।।१०९-११२।।
(यहाँ आचार्य कहते हैं कि) पुद्गलकर्म के विपाक के प्रकार होने से अत्यन्त अचेतन ये तेरह गुणस्थान ही कर्ता होकर व्याप्यव्यापकभाव से पुद्गलकर्म को करें तो भले करें, इसमें आत्मा का क्या आया ?
यहाँ यदि कोई ऐसा तर्क करे कि पुद्गलमय मिथ्यात्वादि को भोगता हुआ जीव स्वयं ही मिथ्यादृष्टि होकर पुद्गलकर्म को करता है।
उससे कहते हैं कि इसप्रकार का तर्क वस्तुत: अविवेक ही है, अविवेक की निशानी ही है; क्योंकि भाव्यभावकभाव का अभाव होने से निश्चय से पुद्गलद्रव्यमय मिथ्यात्वादि का भोक्ता भी आत्मा नहीं है तो फिर पुद्गलकर्म का कर्ता कैसे हो सकता है ?
इससे यह सिद्ध हुआ कि गुण (गुणस्थान) शब्द से कहे जानेवाले पुद्गलद्रव्यमय चार सामान्य प्रत्ययों के भेदरूप तेरह विशेष प्रत्यय ही कर्मों को करते हैं; इसलिए जीव पुद्गलकर्मों का अकर्ता है, किन्तु गुण (गुणस्थान) ही उनके कर्ता हैं और वे गुण तो पुद्गलद्रव्य ही हैं, इससे यह सुनिश्चित हुआ कि पौद्गलिक कर्मों का कर्ता एक पुद्गल ही है।"
देखो, यहाँ प्रत्ययों को बंध का कर्ता कहा जा रहा है; क्योंकि यह तो स्पष्ट किया ही जा चुका है कि बंध का कर्ता भगवान आत्मा नहीं है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है कि जब आत्मा बंध का कर्ता नहीं है तो फिर बंध का कर्ता कौन है ? क्योंकि बंध होता तो है ही।
जब बंध होता है तो उसका करनेवाला भी कोई न कोई तो होना ही चाहिए, क्योंकि कर्ता के बिना कार्य का होना संभव नहीं है।
इसी प्रश्न के उत्तर में यहाँ कहा जा रहा है कि बंध के कारण प्रत्यय हैं। वे प्रत्यय सामान्य से चार भागों में विभाजित किये जाते हैं। वे चार प्रकार के हैं - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ।