________________
१८१
कर्ताकर्माधिकार
“अपने चैतन्यस्वरूप या अचैतन्यस्वरूप द्रव्य में या गुण में अनादि से ही जो वस्तु निजरस से वर्तती है, अचलित वस्तुस्थिति की मर्यादा तोड़ने में अशक्य होने से वह वस्तु उसी में वर्तती है, द्रव्यान्तर या गुणान्तररूप संक्रमण को प्राप्त नहीं होती। इसप्रकार द्रव्यान्तर या गुणान्तररूप संक्रमण को प्राप्त न होती हुई, वह वस्तु अन्य वस्तु को कैसे परिणमित करा सकती है ? इसलिए यह सुनिश्चित है कि परभाव किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता है।
यथा खलु मृण्मये कलशे कर्मणि मृद्रव्यमृद्गुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणांतरसंक्रमस्य वस्तुस्थित्यैव निषिद्धत्वादात्मानमात्मगुणं वा नाधत्ते स कलशकारः, द्रव्यांतरसंक्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुनः परिणमयितुमशक्यत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो न तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभाति । ___ तथा पुद्गलमये ज्ञानावरणादौ कर्मणि पुद्गलद्रव्यपुद्गलगुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणांतरसंक्रमस्य विधातुमशक्यत्वादात्मद्रव्यमात्मगुणं वात्मा न खल्वाधत्ते, द्रव्यांतरसंक्रममंतरेणान्यस्य वस्तुनः परिणमयितुमशक्यत्वात्तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानः कथं नु तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभायात्? ततः स्थित: खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता ।।१०३-१०४ ।।
जिसप्रकार मिट्टीमय घटरूपी कर्म (कार्य) मिट्टीरूपी द्रव्य में और मिट्टी के गुण में निजरस से ही वर्तता है, उसमें कुम्हार अपने द्रव्य को या अपने गुणों को डालता या मिलाता नहीं है; क्योंकि किसी वस्तु का द्रव्यान्तर या गुणान्तर रूप में संक्रमण होने का वस्तुस्थिति से ही निषेध है। इसकारण द्रव्यान्तररूप में संक्रमण प्राप्त किये बिना अन्य वस्तु को परिणमित करना अशक्य होने से, अपने द्रव्य और गुण दोनों को उस घटरूपी कार्य में न डालता हुआ वह कुम्हार परमार्थ से उसका कर्ता प्रतिभासित नहीं होता। ___ इसीप्रकार पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्म (कार्य) पुद्गलद्रव्य में और पुद्गल के गुणों में निजरस से ही वर्तते हैं, उसमें आत्मा अपने द्रव्य को या अपने गुणों को वास्तव में डालता या मिलाता नहीं है; क्योंकि किसी वस्तु का द्रव्यान्तर या गुणान्तर रूप में संक्रमण होना अशक्य है। द्रव्यान्तररूप में संक्रमण प्राप्त किये बिना अन्य वस्तु को परिणमित करना अशक्य होने से, अपने द्रव्य व गुण दोनों को ज्ञानावरणादि कर्मों में न डालता हुआ वह आत्मा परमार्थ से उनका कर्ता कैसे हो सकता है ? इसलिए वास्तव में आत्मा पुद्गलकर्मों का अकर्ता सिद्ध
हुआ।"
इसप्रकार इन गाथाओं में यही स्पष्ट किया गया है कि जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में संक्रमित ही नहीं होता तो उसमें वह कर भी क्या सकता है ? अत: यह आत्मा भी कर्मों में संक्रमित न होने से कर्मों का कर्ता नहीं हो सकता।
विगत गाथा में यह बात बहुत विस्तार से स्पष्ट की गई है कि आत्मा ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता नहीं है। अत: अब एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जब आत्मा कर्मों का कर्ता नहीं है, तब ऐसा क्यों कहा जाता है कि आत्मा कर्मों का कर्ता है। जिनवाणी में भी कई स्थानों पर यह मिलता