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समयसार
के कारण आत्मा को ही उसकी विकारी और अविकारी दोनों अवस्थाओं का कर्ता-भोक्ता क्यों न कहा जाये ?
अथ व्यवहारं दर्शयति, अथैनं दूषयति
ववहारस्स दु आदा पोग्गलकम्मं करेदि णेयविहं । तं चेव पुणो वेयइ पोग्गलकम्मं अणेयविहं । ८४ । । जदि पोग्गलकम्ममिणं कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा । दोकिरियावदिरित्तो पसज्जदे सो जिणावमदं ।। ८५ ।।
व्यवहारस्य त्वात्मा पुद्गलकर्म करोति नैकविधम् । तच्चैव पुनर्वेदयते पुद्गलकर्मानेकविधम् ।। ८४ । यदि पुद्गलकर्मेदं करोति तच्चैव वेदयते आत्मा । द्विक्रियाव्यतिरिक्त: प्रसजति स जिनावमतम् ।। ८५ ।।
यथांतर्व्याप्यव्यापकभावेन मृत्तिकया कलशे क्रियमाणे भाव्यभावकभावेन मृत्तिकयैवानुभूयमाने च बहिर्व्याप्यव्यापकभावेन कलशसंभवानुकूलं व्यापारं कुर्वाणः कलशकृततोयोपयोगजां तृप्तिं भाव्यभावकभावेनानुभवंश्च कुलालः कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति
तावद्व्यवहारः ।
तात्पर्य यह है कि निश्चय से आत्मा ही अपनी विकारी और निर्विकारी अवस्थाओं का कर्ताभोक्ता है ।
अब व्यवहारनय का पक्ष प्रस्तुत कर उसका खण्डन करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत )
अनेक विध पुद्गल करम को करे भोगे आतमा ।
व्यवहारनय का कथन है यह जान लो भव्यात्मा ।। ८४ ।।
पुद्गल करम को करे भोगे जगत में यदि आतमा । द्विक्रिया अव्यतिरिक्त हों सम्मत न जो जिनधर्म में ।। ८५ ।।
व्यवहारनय का यह मत है कि आत्मा अनेकप्रकार के पुद्गलकर्मों को करता है और उन्हीं अनेकप्रकार के पुद्गलकर्मों को भोगता है ।
यदि आत्मा पुद्गलकर्म को करे और उसी को भोगे तो वह आत्मा अपनी और पुद्गलकर्म की दो क्रियाओं से अभिन्न ठहरे; जो कि जिनदेव को सम्मत नहीं है।
उक्त गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त करते हैं
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“यद्यपि अन्तर में व्याप्य - व्यापकभाव से मिट्टी ही घड़े को करती है और भाव्य-भावकभाव से मिट्टी ही घड़े को भोगती है; तथापि बाह्य में व्याप्य व्यापकभाव से घड़े की उत्पत्ति में अनुकूल ऐसे व्यापार को करता हुआ कुम्हार घड़े का कर्ता है और घड़े के पानी के उपयोग से तृप्ति को भाव्य-भावकभाव से अनुभव करता हुआ वही कुम्हार घड़े का भोक्ता है - ऐसा