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समयसार
कर्तृत्व भार से शून्य शोभायमान,
पूर्ण निर्भार मगन आनन्द स्वभाव में ।।४९।। पुद्गलकर्म, पुद्गलकर्मफलं एव स्वपरिणामं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभाव: किं भवति किं न भवतीति चेत् -
णविपरिणमदिणगिण्हदि उप्पज्जदिण परदव्व पज्जाए। णाणी जाणतो वि हु पोग्गलकम्म अणेयविहं ।।७६।। ण विपरिणमदिण गिण्हदि उप्पज्जदिण परदव्वपज्जाए। णाणी जाणतो वि हु सगपरिणामं अणेयविहं ।।७७।। ण विपरिणमदिण गिण्हदि उप्पज्जदिण परदव्वपज्जाए। णाणी जाणंतो वि हु पोग्गलकम्मप्फलमणंतं ।।७८।। पण वि परिणमदिण पिण्हदि उप्पजदिण परदव्वपज्जाए।
पोग्गलदव्वं पि तहा परिणमदि सएहिं भावेहिं ।।७९।। व्याप्य-व्यापकभाव तत्स्वरूप में ही होता है, अतत्स्वरूप में नहीं। व्याप्य-व्यापकभाव के बिना कर्ता-कर्मभाव भी कैसे बन सकता है ? तात्पर्य यह है कि व्याप्य-व्यापकभाव के बिना कर्ता-कर्मभाव बन ही नहीं सकता। इसप्रकार प्रबल विवेक और सर्वग्राही ज्ञान के भार (बल) से परकर्तृत्व संबंधी अज्ञानांधकार को भेदता हुआ यह आत्मा ज्ञानी होकर परकर्तृत्व से शून्य हो शोभायमान हो रहा है।
देखो, यहाँ यह बात एकदम उभर कर आ गई है कि पर का कर्ता तो ज्ञानी-अज्ञानी कोई भी नहीं है; परन्तु पर के कर्तृत्व के अहंकार से ग्रस्त अज्ञानी अपने उस अज्ञानभाव का कर्ता अवश्य है।
यद्यपि पर में कर्तृत्वबुद्धि के अभाव के कारण ज्ञानी आत्मा को पर के लक्ष्य से उत्पन्न होनेवाले रागादि भावों का भी कर्ता नहीं माना गया है; तथापि उन रागादि को जाननेरूप ज्ञान का कर्ता तो ज्ञानी भी है ही।
यद्यपि यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो गई है कि आत्मा का पौद्गलिक भावों के साथ कर्ताकर्मसंबंध नहीं है; तथापि आगामी गाथाओं में भी उसी बात को विस्तार से समझाते हैं; अनेक युक्तियों से पाठकों के गले उतारते हैं। गाथाओं की उत्थानिका में जो प्रश्न उपस्थित किया गया है, उसका भाव इसप्रकार है। “पुद्गलकर्म, पुद्गलकर्मों के फल और स्वपरिणामों को जानते हुए जीव के साथ पुद्गल