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समयसार क्रोधादौ वर्तते तत्र वर्तमानश्च क्रोधादिक्रियाणां परभावभूतत्वात्प्रतिषिद्धत्वेऽपि स्वभावभूतत्वाध्यासात्क्रुध्यति रज्यते मुह्यति चेति । ___तदत्र योऽयमात्मा स्वयमज्ञानभवने ज्ञानभवनमात्रसहजोदासीनावस्थात्यागेन व्याप्रियमाण: प्रतिभाति स कर्ता यत्तु ज्ञानभवनव्याप्रियमाणत्वेभ्यो भिन्नं क्रियमाणत्वेनांतरुत्प्लवमानं प्रतिभाति क्रोधादि तत्कर्म । एवमियमनादिरज्ञानजा कर्तृकर्मप्रवृत्तिः।
एवमस्यात्मनः स्वयमज्ञानात्कर्तकर्मभावेन क्रोधादिषु वर्तमानस्य तमेव क्रोधादिवत्तिरूपं परिणामं निमित्तमात्रीकृत्य स्वयमेव परिणममानं पौद्गलिकं कर्म संचयमुपयाति।
एवं जीवपुदगलयोः परस्परावगाहलक्षणसंबंधात्मा बन्धः सिध्येत् ।
स चानेकात्मकै कसंतानत्वेन निरस्तेतरेतराश्रयदोषः कर्तृकर्मप्रवृत्तिनिमित्तस्याज्ञानस्य निमित्तम् ।।६९-७०॥ निःशंकतया प्रवर्तता है, वह ठीक नहीं है; क्योंकि क्रोधादि क्रिया आत्मा की स्वभावभूत क्रिया नहीं है, परभावभूत (विभावभूत) क्रिया है - इसकारण उसमें नि:शंकतया प्रवर्तन का निषेध किया है।
यद्यपि परभावभूत होने से क्रोधादि क्रिया का निषेध किया गया है, तथापि अज्ञानी को उसमें स्वभावभूतपने का अध्यास (अनुभव) होने से अज्ञानी क्रोधरूप परिणमित होता है, रागरूप परिणमित होता है, द्वेषरूप परिणमित होता है।
अपने अज्ञानभाव के कारण ज्ञानभवनरूप सहज उदासीन अवस्था का त्याग करके अज्ञानभवन व्यापार रूप अर्थात् क्रोधादि व्यापार रूप प्रवर्तित होता हुआ अज्ञानी आत्मा कर्ता है और ज्ञानभवन व्यापाररूप प्रवृत्ति से भिन्न, अंतरंग में उत्पन्न क्रोधादि उसके कर्म हैं।
इसप्रकार अनादिकालीन अज्ञान से होनेवाली यह कर्ताकर्म की प्रवृत्ति है।
इसप्रकार अपने अज्ञान के कारण, कर्ताकर्मभाव से क्रोधादि में प्रवर्तमान इस आत्मा के, क्रोधादि की प्रवृत्तिरूप परिणाम को निमित्तमात्र करके, स्वयं अपने भाव से ही परिणमित होता हुआ पौद्गलिक कर्म इकट्ठा होता है।
इसप्रकार इस जीव के जीव और पुद्गल के परस्पर अवगाह लक्षणवाला संबंधरूप बंध सिद्ध होता है।
अनेकान्तात्मक होने पर भी अनादि एक प्रवाहपना होने से इसमें इतरेतराश्रय दोष भी नहीं आता है। यह बंध कर्ताकर्म की प्रवृत्ति के निमित्तभूत अज्ञान का निमित्त है।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप जो ज्ञानक्रिया है, वह ज्ञानी का कर्म है और वह निषेध करने योग्य नहीं है। रागादिभावरूप जो विभावक्रिया है, वह ज्ञानी का कर्म नहीं है; अत: निषेध करने योग्य है।
बंध का मूल कारण अज्ञानजन्य कर्ता-कर्म की प्रवृत्ति है और जबतक इस कर्ता-कर्म की प्रवृत्ति से निवृत्ति नहीं होगी; तबतक कर्म का बंध भी नहीं रुकेगा।
६९ और ७०वीं गाथा में यह बताया गया है कि बंध का मूल कारण अज्ञानजन्य कर्ताकर्म की प्रवृत्ति ही है। अतः अब यह प्रश्न सहज ही उपस्थित होता है कि कर्ताकर्म की प्रवृत्ति की निवृत्ति कब होगी, कैसे होगी? इसी प्रश्न के उत्तर में ७१वीं गाथा का जन्म हुआ है।