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जीवाजीवाधिकार सभी अवस्थाओं में वर्णादिस्वरूपता से व्याप्त होता है और वर्णादिस्वरूपता की व्याप्ति से रहित नहीं होता; इसलिए पुद्गल का वर्णादि के साथ तादात्म्यसंबंध है।
संसारावस्थायां कथंचिद्वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्चापि मोक्षावस्थायां सर्वथा वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्याभवतश्च जीवस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षण: सम्बन्धो न कथंचनापि स्यात् ।
जीवस्य वर्णादितादात्म्यदुरभिनिवेशे दोषश्चायम् - यथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिः पुद्गलद्रव्यमनुगच्छंत: पुद्गलस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयंति, तथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिर्जीवमनुगच्छंतो जीवस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयंतीति यस्याभिनिवेशः तस्य शेषद्रव्यासाधारणस्य वर्णाद्यात्मकत्वस्य पुद्गललक्षणस्य जीवेन स्वीकरणाज्जीवपुद्गलयोरविशेषप्रसक्तौ सत्यां पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः। ___ संसारावस्थायामेव जीवस्य वर्णादितादात्म्यमित्यभिनिवेशेऽप्ययमेव दोषः - यस्य तु संसारावस्थायां जीवस्य वर्णादितादात्म्यमस्तीत्यभिनिवेशस्तस्य तदानीं स जीवो रूपित्वमवश्यमवाप्नोति।
रूपित्वं च शेषद्रव्यासाधारणं कस्यचिद्रव्यस्य लक्षणमस्ति । ततो रूपित्वेन लक्ष्यमाणं यत्किंचिद्भवति स जीवो भवति । रूपित्वेन लक्ष्यमाणं पुद्गलद्रव्यमेव भवति ।
एवं पुद्गलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति, न पुनरितरः कतरोऽपि।
तथा च सति, मोक्षावस्थायामपि नित्यस्वलक्षणलक्षितस्य द्रव्यस्य सर्वास्वप्यवस्थास्वनपायित्वादनादिनिधनत्वेन पुद्गलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति, न पुनरितरः कतरोऽपि ।
यद्यपि जीव संसार-अवस्था में कथंचित् वर्णादिस्वरूपता से व्याप्त होता है तथा वर्णादिस्वरूपता की व्याप्ति से रहित नहीं होता है; तथापि मोक्ष-अवस्था में तो सर्वथा वर्णादिस्वरूपता की व्याप्ति से रहित होता है और वर्णादिस्वरूपता से व्याप्त नहीं होता है - ऐसे जीव का वर्णादि भावों के साथ किसी भी प्रकार से तादात्म्यसंबंध नहीं होता है। ___ यदि कोई ऐसा दुरभिनिवेश रखे कि जीव का वर्णादि के साथ तादात्म्य है तो उसमें निम्नांकित दोष आता है कि जिसप्रकार क्रमशः आविर्भाव और तिरोभाव को प्राप्त पर्यायों से पुद्गल का वर्णादिक के साथ तादात्म्य माना जाता है; यदि इसीप्रकार क्रमशः आविर्भाव और तिरोभाव को पर्यायों से जीव का वर्णादिक के साथ तादात्म्य मानेंगे तो उनके मत में जीव भी पुद्गल हो जाने से जीव का अभाव हो जायेगा।
संसारी जीव का वर्णादि के साथ तादात्म्य मानने पर भी इसीप्रकार का दोष आयेगा। जिसका यह अभिप्राय है कि संसार-अवस्था में जीव का वर्णादिभावों के साथ तादात्म्य संबंध है; उसके मत में संसार-अवस्था के समय जीव अवश्य रूपित्व को प्राप्त होगा। ऐसी स्थिति में पदगल के समान जीव भी रूपित्वलक्षण से लक्षित होगा।