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जीवाजीवाधिकार निश्चय से देखा जाये तो आकाश के अमुक भागस्वरूप मार्ग कभी भी नहीं लुटता; क्योंकि उसका लुटना सम्भव ही नहीं है। बंधपर्यायेणावस्थितं कर्मणो नोकर्मणो वा वर्णमुत्प्रेक्ष्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण जीवस्यैष वर्ण इति व्यवहारतोऽर्हदेवानां प्रज्ञापनेऽपि न निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणाधिकस्य जीवस्य कश्चिदपि वर्णोऽस्ति एवं गंधरसस्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननरागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्मवर्ग वर्गणास्पर्धकाध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानबंधस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबंधस्थानसंक्लेशस्थानविशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानजीवस्थानगुणस्थानान्यपि व्यवहारतोऽर्हदेवानांप्रज्ञापनेऽपि निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणेनाधिकस्य जीवस्य सर्वाण्यपि न सन्ति, तादात्म्यलक्षणसम्बन्धाभावात् ।।५८-६० ।। कुतो जीवस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षण: सम्बन्धो नास्तीति चेत् -
तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णादी। संसारपमुक्काणं णत्थि हु वण्णादओ केई ।।६१।। जीवो चेव हि एदे सव्वे भाव त्ति मण्णसे जदि हि। जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई ॥६२।। अह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी। तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा ॥६३।। एवं पोग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदी।
णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं पोग्गलो पत्तो ॥६४।। इसीप्रकार जीव में बंधपर्यायरूप से अवस्थित कर्म और नोकर्म का वर्ण देखकर, कर्म और नोकर्म की जीव में स्थिति होने से उसका उपचार करके यद्यपि अरहन्तदेव भी व्यवहार से ऐसा कहते हैं कि जीव का यह वर्ण है; तथापि उपयोग गुण द्वारा अन्य द्रव्यों से अधिक होने से, भिन्न होने से अमूर्तस्वभावी जीव का निश्चय से कोई भी वर्ण नहीं है, रंग नहीं है।
जिसप्रकार वर्ण के बारे में, रंग के बारे में समझा है; उसीप्रकार गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, जीवस्थान और गुणस्थान के बारे में भी समझ लेना चाहिए; क्योंकि इन सभी को अरहन्त भगवान व्यवहार से जीव के कहते हैं; तथापि उपयोग गुण द्वारा अन्य द्रव्यों से अधिक होने से, भिन्न होने से इन भावों में कोई भी निश्चय से जीव का नहीं हैक्योंकि इनका जीव के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है।'
“वर्णादि भावों का जीव के साथ तादात्म्य सम्बन्ध न होने से वे निश्चय से जीव नहीं हैं" - अबतक पूरा वजन देकर इस बात को कहते आ रहे हैं। अत: शिष्य का प्रश्न यह है कि वर्णादिभावों