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जीवाजीवाधिकार
तथा रक्तद्विष्टविमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः ।।४६।। अथ केन दृष्टांतेन प्रवृत्तो व्यवहार इति चेत् -
राया हु णिग्गदो त्ति य एसो बलसमुदयस्य आदेसो । ववहारेण दु उच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया ।।४७।। एमेव य ववहारो अज्झवसाणादि अण्णभावाणं । जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो।।४८।।
राजा खलु निर्गत इत्येष बलसमुदयस्यादेशः। व्यवहारेण तूच्यते तत्रैको निर्गतो राजा।।४७।। एवमेव च व्यवहारोऽध्यवसानाद्यन्यभावानाम् ।
जीव इति कृतः सूत्रे तत्रैको निश्चितो जीवः ।।४८।। दूसरी बात यह है कि परमार्थ से जीव को राग-द्वेष-मोह से भिन्न बताये जाने पर 'रागीद्वेषी-मोही जीव कर्म से बँधता है; अत: उसे छुड़ाना' - इसप्रकार के मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जाने से मोक्ष का भी अभाव हो जायेगा।
इसप्रकार यदि व्यवहारनय नहीं बताया जाये तो बंध और मोक्ष - दोनों का अभाव ठहरता है।" इसप्रकार इस गाथा में अध्यवसानादि भावों को व्यवहार से जीव कहने की उपयोगिता सिद्ध कर दी गई है।
आचार्यदेव ने ४६वीं गाथा में अध्यवसानादि भावों को जीव कहने की उपयोगिता बताकर शिष्यों को सन्तुष्ट तो कर दिया, पर अब शिष्य यह जानना चाहते हैं कि वह कौन-सा व्यवहार है, किसप्रकार का व्यवहार है कि जिसका यहाँ दिखाया जाना इतना आवश्यक था ?
शिष्य किसी सरल-सुबोध उदाहरण के माध्यम से यह बात जानना चाहते हैं।
ऐसा विचार कर इस बात को आचार्यदेव ४७-४८वीं गाथाओं द्वारा सोदाहरण समझाते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) सेना सहित नरपती निकले नृप चला ज्यों जन कहें। यह कथन है व्यवहार का पर नृपति उनमें एक है।।४७।। बस उसतरह ही सूत्र में व्यवहार से इन सभी को।
जीव कहते किन्तु इनमें जीव तो बस एक है।।४८।। सेना सहित राजा के निकलने पर जो यह कहा जाता है कि 'यह राजा निकला, वह व्यवहार से ही कहा जाता है; क्योंकि उस सेना में वस्तुतः राजा तो एक ही होता है।
उसीप्रकार अध्यवसानादि अन्य भावों को 'ये जीव हैं' - इसप्रकार जो सूत्र (आगम) में कहा गया है तो व्यवहार से ही कहा गया है। यदि निश्चय से विचार किया जाये तो उसमें जीव तो एक ही है।