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________________ पूर्वरंग ८१ वस्तुत: वे मिले हुए नहीं हैं; क्योंकि यदि पूर्णत: मिल जाते, मिलकर एक हो जाते तो उनका भिन्नभिन्न स्वाद आना संभव नहीं था। इसीप्रकार जाननेवाली ज्ञातृता और जानने में आनेवाला मोह यद्यपि अज्ञानी को अभेद ही अनुभव में आते हैं; तथापि स्वादभेद के कारण उनकी भिन्नता जानी जा सकती है। निराकुलस्वाद वाला ज्ञान और आकुलतास्वादवाला मोह ज्ञान में पृथक्-पृथक् ही भासित होते हैं। इससे ज्ञानी आत्मा निर्णय कर लेते हैं कि 'आकुलतास्वादवाला मोह मेरा कुछ भी नहीं है, मैं तो निराकुलस्वाद वाला ज्ञान ही हूँ।' - इसी को ज्ञानीजन मोह से निर्ममता कहते हैं। (स्वागता) सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम् । नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि ।।३०।। एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि । अथ ज्ञेयभावविवेकप्रकारमाह - णत्थि मम धम्म आदी बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ।।३७।। नास्ति मम धर्मादिर्बुध्यते उपयोग एवाहमेकः। तं धर्मनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति ।।३७।। अब इसी भावना को पुष्ट करनेवाला कलश प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) सब ओर से चैतन्यमय निजभाव से भरपूर हूँ। मैं स्वयं ही इस लोक में निजभाव का अनुभ यह मोह मेरा कुछ नहीं चैतन्य का घनपिण्ड हूँ। हूँशुद्ध चिद्घन महानिधि मैं स्वयं एक अखण्ड हूँ।।३०।। इस लोक में मैं स्वयं ही अपने एक आत्मस्वरूप का अनुभव करता हूँ, जो चारों ओर से अपने चैतन्यरस से भरपूर है। यह मोह मेरा कुछ भी नहीं है; क्योंकि मैं तो शुद्ध चैतन्य के समूहरूप तेजपुंज का निधान हूँ। इस कलश के उपरान्त आत्मख्याति का वह अंश आता है, जिसमें कहा गया है - “जिसप्रकार जितमोह और क्षीणमोह में मोह पद के स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान आदि पद रखकर १६-१६ गाथायें बनाकर व्याख्यान करने की बात कही थी; उसीप्रकार यहाँ भी १६ गाथायें बनाकर व्याख्यान करना चाहिए। इसीप्रकार और गाथायें भी बनाई जा सकती हैं।"
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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