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प्रवचनसार अनुशीलन द्रव्यार्थिकनय की आँख से खोलकर देखें तो वह द्रव्य अन्यरूप कभी नहीं हुआ है। यदि पर्यायार्थिकनय की आँख से निहारें तो वही द्रव्य जब जैसी पर्याय होती है, तब तैसा परिणमित होता है; इसलिए द्रव्य जिस समय जिस पर्याय से तन्मय है, उससमय उसी पर्यायमय है।
जिसप्रकार अग्नि तो एक ही है; पर अनेक प्रकार के ईंधन में प्रवेश करते हुए ईंधन के आकार हो जाती है; उसीप्रकार एक आत्मा भिन्न-भिन्न पर्यायों से भिन्न-भिन्न रहते हुए भी द्रव्य से अभिन्न ही रहता है।
इस गाथा के भाव को पण्डित देवीदासजी मात्र १ दोहे में इसप्रकार प्रस्तुत कर देते हैं -
(दोहा) दरव दिष्टि करिकै सवै वस्तु स्वरूप सु एक।
पुनि परजाय सुदिष्टि करि सो परकार अनेक ।।४१।। द्रव्यदृष्टि से देखने पर सभी वस्तुएँ स्वरूप से एकरूप ही हैं और पर्यायदृष्टि से देखने पर वे अनेकरूप हैं।
स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"पर्यायार्थिकनय को गौण करके अकेले द्रव्यार्थिकनय से जब वस्तु का ज्ञान किया जाता है; तब नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति
और सिद्धत्व इन सभी अवस्थाओं में जीव सामान्यपने से देखने पर ये सभी जीव हैं - ऐसा निश्चित होता है अर्थात् ये अन्य जीव नहीं, अजीव भी नहीं हैं। जीव एक गति में से दूसरी गति में जाये तो वह दूसरा जीव नहीं हो जाता।
जब द्रव्यार्थिकनय को गौण करके पर्यायार्थिकनय से देखा जाता है; तब पृथक्-पृथक् अवस्था को देखनेवाले नय से वह द्रव्य पृथक्-पृथक् भासित होता है। जैसे कि मनुष्य पर्याय देव पर्याय नहीं है, देव पर्याय सिद्ध पर्याय नहीं है। इसप्रकार अवस्था से देखा जाए तो जीव अन्य-अन्य भासित होता है; क्योंकि वह विशेषों के समय उनमें तन्मय होने के कारण वह उनसे पृथक् नहीं, अपितु अनन्य है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-३३४-३३५२. वही, पृष्ठ-३३५
गाथा-११४
विशेषों में रहे हुए द्रव्य को जानना वह द्रव्यार्थिकनय है। द्रव्य में रहे हुए विशेषों को जानना वह पर्यायार्थिकनय है।' - स्व का ज्ञान होने पर, पर का ज्ञान अपने निश्चय ज्ञान से होता है। स्व-परप्रकाशक ज्ञानस्वभाव अपना है; इसलिए निश्चय है, पर्याय भी निश्चय है। सामान्य ध्रुव भी निश्चय है । वस्तु का सर्वदेश प्रमाण ज्ञान से अवलोकन करने पर स्वतंत्र एक-एक द्रव्य में उनका भेद-अभेदपना विरोध को प्राप्त नहीं होता। विरोध तो परद्रव्य की जरूरत (आवश्यकता) स्वीकार करनेवाले अज्ञान में है।
चैतन्य स्व-परप्रकाशक है। स्व-पर ज्ञायक शक्ति स्वतंत्ररूपसे रहकर परिणमित होती है - ऐसा जिसने नहीं माना; उसने आत्मा को ही नहीं माना । जड़ पदार्थ, जड़ पदार्थ की सर्वशक्तियों से जड़ेश्वर है और चैतन्य आत्मा चैतन्यरूप से पूर्ण ईश्वर है।" ___ इस गाथा में आचार्यदेव कह रहे हैं कि वस्तु का स्वरूप सामान्यविशेषात्मक है। उसे जानने के लिए दो आँखें चाहिए - एक द्रव्यार्थिकनय की आँख, जो वस्तु के सामान्यस्वरूप को देखती है और दूसरी पर्यायार्थिकनय की आँख, जो वस्तु के विशेषस्वरूप को देखती है। इसप्रकार प्रमाणज्ञान से दोनों आँखें मिलकर सामान्यविशेषात्मक वस्तु को अच्छी तरह जान लेती हैं। __ ध्यान रहे यहाँ ऐसा नहीं कहा है कि मात्र एक द्रव्यार्थिकनय की
आँख को सदा खोलना है. पर्यायार्थिकनय की आँख को बंद ही रखना है। ___ अन्त में आचार्यदेव ने प्रमाणदृष्टि की चर्चा की है, जिसमें दोनों
आँखें एकसाथ खुली रखी जाती हैं। अतः इस गाथा में से ऐसा अर्थ निकालना कि सदा एक द्रव्यार्थिक आँख को ही खुली रखना, एकदम गलत है; क्योंकि वस्तुस्वरूप समझने के लिए उसे प्रत्येक दृष्टि से देखना अत्यन्त आवश्यक है। ध्यान देने की बात यह है कि इस गाथा के प्रवचन में स्वामीजी ने आत्मा के स्व-परप्रकाशक स्वभावको निश्चय कहा है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-३३६ २. वही, पृष्ठ-३३७ ३. वही, पृष्ठ-३३९