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________________ १०८ प्रवचनसार अनुशीलन अनन्य ही रहता है; अन्य अन्य नहीं हो जाता। उसीप्रकार द्रव्य की दृष्टि से देखने पर मनुष्यादि पर्यायों में परिणमित होता हुआ जीवद्रव्य जीव ही रहता है, अनन्य ही रहता है; अन्य-अन्य नहीं हो जाता है। इस अपेक्षा सत् का ही उत्पाद होता है। जिसप्रकार कंकणादि गहनों की दृष्टि से देखने पर कंकणादि पर्यायों में परिणमित सोना कंकणादि ही हो जाता है, अन्य-अन्य ही हो जाता है, अनन्य नहीं रहता । उसीप्रकार मनुष्यादि पर्यायों की दृष्टि देखने पर मनुष्यादि पर्यायों में परिणमित जीव मनुष्यादि ही हो जाता है, अन्य-अन्य ही हो जाता है, अनन्य नहीं रहता । इस अपेक्षा से असत् का ही उत्पाद होता है । कविवर वृन्दावनदासजी ने उक्त दोनों गाथाओं के भाव को एक एक मनहरण कवित्त में बड़ी ही सरलता से प्रस्तुत किया है; जो इसप्रकार है( मनहरण कवित्त ) जीव दर्व आपने सुभाव प्रनवंत संत, मानुष अमर वा अपर पर्ज धारैगो । तिन परजायनिसों नानारूप होय तऊ, कहा तहाँ आपनी दरवशक्ति छाँरैगो ।। जो न कहूँ आपनी दरवशक्ति छोड़ें तब, कैसे और रूप भयो निहचै बिचारैगो । ऐसे दर्वशक्ति नानारूप परजाय व्यक्त, थारथ जाने वृन्द सोई आप तारैगो । । ७१ ।। यह जीव द्रव्य अपने स्वभावरूप परिणमित होता हुआ मनुष्य, देव अथवा अन्य किसी पर्याय को धारण करेगा और उन पर्यायों की अपेक्षा अनेकप्रकार का होगा; तथापि वह वहाँ अपनी द्रव्यशक्ति को छोड़ देगा क्या ? अर्थात् कभी नहीं छोड़ेगा। और यदि वह अपनी द्रव्यशक्ति को नहीं छोड़ता है तो फिर अन्यरूप कैसे होगा ? इस बात को निश्चयनय से विचार करके देखना चाहिए। इसप्रकार अनेक पर्यायों में व्यक्त ऐसी द्रव्यशक्ति को जो यथार्थरूप से जानेगा; कविवर वृन्दावनदासजी कहते हैं। कि वह व्यक्ति निश्चितरूप से स्वयं को संसारसागर से पार अवश्य उतारेगा। गाथा - ११२-११३ १०९ एक परजाय जिहिकाल परिनवै जीव, तिहिकाल और परजायरूप नहीं है। मानुष परज परिनयौ तब देव तथा, सिद्धपरजाय तहाँ कहां ठहराही है ।। देव परजाय में मनुष - सिद्ध पर्ज कहाँ, ऐसे परजाय द्वार भेद विलगाही है। या प्रकार एकता न आई तब कैंसे नाहिं, पर्जद्वार नाना नाम दरव लहाही है ।। ७२ ।। जिससमय जो जीव जिस पर्यायरूप परिणमित होता है; उस समय अन्य पर्यायरूप नहीं है। जब मनुष्य पर्यायरूप परिणमित है, तब देव या सिद्ध पर्यायरूप कैसे हो सकता है ? देव पर्याय में मनुष्य या सिद्ध पर्याय कहाँ है ? इसप्रकार पर्यायापेक्षा भेद दिखाई देता है । इसप्रकार यदि एकता नहीं आती है तो फिर द्रव्य पर्यायापेक्षा अनेक नाम धारण क्यों नहीं करेगा ? पण्डित देवीदासजी भी इन गाथाओं के भाव को १ इकतीसा सवैया और १ छप्पय में बड़ी ही सहजता से इसीप्रकार प्रस्तुत कर देते हैं। स्वामीजी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "समयसार में दृष्टि का विषय बताने के लिए ध्रुवस्वभाव की बात की है; वहाँ जीवस्थान, गुणस्थान जीव का कायमी स्वरूप नहीं होने के कारण उसे अजीव बताया है और यहाँ प्रवचनसार में ऐसा कहा है कि क्रोधरूप, मानरूप, मिथ्यात्वरूप, अज्ञानरूप, मार्गणास्थानरूप अलगअलग गुणस्थानों की दशारूप जीव स्वयं रहता है; इसप्रकार अखण्ड ज्ञेय बताकर अंशी ऐसे द्रव्य को बताया है। वह का वही द्रव्य ध्रुव शक्तिवान रहता है - ऐसा ध्रुव द्रव्य बताना है। शक्तिवान पर वजन है। द्रव्यगुण-पर्याय इन तीनों का ज्ञान कराकर द्रव्यदृष्टि करवाना है ।" प्रत्येक द्रव्य परिणामी नित्य है। यदि द्रव्य अकेला परिणामी ही हो तो नित्य के बिना परिणाम किसका ? और यदि द्रव्य अकेला (मात्र ) १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-३०९-३१०
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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