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________________ प्रवचनसार अनुशीलन वह इसप्रकार है कि जिसप्रकार एक चक्षु इन्द्रिय के विषय में आनेवाला और अन्य सभी इन्द्रियों के गोचर न होनेवाला जो सफेदीरूप गुण है; वह समस्त इन्द्रियों को गोचर होनेवाले दुपट्टेरूप गुणी नहीं हैं और जो समस्त इन्द्रिय समूह को गोचर होनेवाला दुपट्टा है, वह एक चक्षुइन्द्रिय के विषय में आनेवाला तथा अन्य समस्त इन्द्रियों के विषय में नहीं आनेवाला सफेदीरूप गुण नहीं है। इसलिए उनके तद्भाव का अभाव है। इसीप्रकार किसी के आश्रय रहनेवाली, स्वयं निर्गुण, एक गुणमय, विशेषण, विधायक और वृत्तिस्वरूप जो सत्ता (सत्ता गुण- अस्तित्व गुण) है; वह किसी के आश्रय बिना रहनेवाला, गुणवाला, अनेक गुणमय, विशेष्य, विधीयमान और वृत्तिमानस्वरूप द्रव्य नहीं है तथा जो किसी के आश्रय बिना रहनेवाला, गुणवाला, अनेक गुणमय, विशेष्य, विधीयमान और वृत्तिमानस्वरूप द्रव्य है; वह किसी के आश्रित रहनेवाली, निर्गुण, एक गुणमय, विशेषण, विधायक और वृत्तिस्वरूप सत्ता नहीं है। इसलिए इनके तद्भाव का अभाव है। ८२ ऐसा होने से यद्यपि सत्ता और द्रव्य के कथंचित् अनर्थान्तरत्व (अभिन्नता) है; तथापि उनके सर्वथा एकत्व होगा - ऐसी शंका नहीं करना चाहिए; क्योंकि तद्भाव एकत्व का लक्षण है। जो तद्भावरूप नहीं हो, वह सर्वथा एक कैसे हो सकता है ? वह तो गुण-गुणी भेद से अनेक ही है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका टीका का ही अनुसरण करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी ने इस गाथा के भाव को प्रस्तुत करने के लिए २ मनहरण, १ छप्पय और १ दोहा इसप्रकार ४ छन्दों का प्रयोग किया है; जिनमें गाथा और टीका की विषयवस्तु को सोदाहरण प्रस्तुत कर दिया है; जो मूलतः पठनीय है। पण्डित देवीदासजी ने भी प्रवचनसारभाषाकवित्त में इस गाथा के भाव को प्रस्तुत करने के लिए ६ दोहे, २ चौपाई, १ कवित्त और १ सवैया गाथा - १०६ ८३ - इसप्रकार १० छन्द लिखे हैं; जो सभी मूलतः पठनीय हैं। विस्तार भय से उन्हें यहाँ देना संभव नहीं है। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “प्रदेशों का पृथक्-पृथक् होना पृथक्त्व का लक्षण है। आत्मा और शरीर के प्रदेश बिल्कुल पृथक् हैं, आत्मा और कर्म के प्रदेश भी पृथक् हैं । शरीर के एक परमाणु का दूसरे परमाणु से प्रदेशभेद है; इसीलिए कोई आत्मा दूसरे आत्मा अथवा शरीरादि का कुछ भी नहीं कर सकता । गुण-गुणी में प्रदेशभेद नहीं है - ऐसा बराबर समझे तथा निश्चय का भान हो; फिर भी यदि अस्थिरता का राग होता है तो उससे धर्म नष्ट नहीं हो जाता। गुण-गुणी में प्रदेश की अभेदता को समझे बिना शुभभाव करे तो उसे धर्म नहीं होता । इसतरह सत्ता और द्रव्य में प्रदेशभेद से भेद नहीं होने पर भी सत्ता गुण और द्रव्य गुणी को परस्पर अन्यत्व है; क्योंकि सत्ता और द्रव्य में अन्यत्व के लक्षण का सद्भाव है। सम्पूर्ण वस्तु एक गुण में नहीं आती; इसकारण वस्त्र और सफेदी में एकत्व नहीं है अर्थात् वस्त्र और सफेदी में अतद्भाव है । इसीप्रकार सत्ता गुण और द्रव्य गुणी के स्वभाव में अन्तर है। १. सत्ता द्रव्याश्रित है और द्रव्य निराश्रित है। २. सत्ता निर्गुण है और द्रव्य गुणवाला है। ३. सत्ता एक गुणरूप है और द्रव्य अनन्त गुणरूप है। ४. सत्ता विशेषण है और द्रव्य विशेष्य है। ५. सत्ता विधायक है और द्रव्य विधीयमान है। ६. सत्ता वृत्तिस्वरूप है और द्रव्य वृत्तिमान है। इसप्रकार किसी के आश्रय से रहनेवाली, निर्गुण, एक गुण की बनी हुई, विशेषण, विधायक और वृत्तिस्वरूप ऐसी जो सत्ता है, वह किसी के १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ २५२-२५३ ३. वही, पृष्ठ २५४ २. वही, पृष्ठ- २५३ ४. वही, पृष्ठ- २५४-२५५
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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