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प्रवचनसार अनुशीलन
जिसप्रकार अंशी वृक्ष के अंश बीज, अंकुर आदि हैं; उनमें तीनों भेदों को इसप्रकार देखा जा सकता है कि बीज का विनाश, अंकुर का उत्पाद और वृक्षत्व की ध्रुवता रहती है - ऐसा श्रद्धान करना चाहिए।
नये द्रव्य का उत्पाद नहीं होता; क्योंकि यह असंभव है; अत: इस बात की चित्त में कल्पना भी नहीं करना चाहिए। द्रव्य की पर्यायरूप परिणति में ही ये तीनों दशायें होती हैं। अतः वृन्दावन कवि कहते हैं कि इस बात को ही श्रद्धा में धारण करो ।
पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं( कवित्त )
वय उत्पत्य ध्रौव्यता इन्हि कौ परजायनि के विषै निवास । परजायनि कौ सदा प्रवर्तन तथा अवस्य दर्व के पास ।। तिहि कारन उत्पाद आदि दै अरु परजाय एक ही रास। सो सब ही सु दरव निश्चै करि भेद अवर दुसरौ न जास ।। १४ ।। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का निवास पर्यायों में है और पर्यायों का निरन्तर पलटना द्रव्य में होता है; इसलिए ये उत्पाद आदि पर्यायें निश्चय से द्रव्य ही हैं; इनमें कोई दूसरा भेद नहीं है।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
" जिसप्रकार समुदायी वृक्ष; स्कन्ध, मूल और शाखाओं के समुदायस्वरूप होने से स्कन्ध, मूल और शाखाओं से आलम्बित ही भासित होता है; उसीप्रकार समुदायी द्रव्य पर्यायों के समुदायस्वरूप होने से पर्यायों द्वारा आलम्बित ही भासित होता है। जिसप्रकार तना, मूल और डालियाँ - ये तीनों वृक्ष के अंश हैं और ये तीनों मिलकर पूरा वृक्ष है; उसीप्रकार पर्यायें वस्तु के अंश हैं, वे पर्यायें वस्तु के आश्रय से ही हैं। वस्तु के अंश वस्तु से पृथक् नहीं हैं।
१. दिव्यध्वनिसार भाग - ३, पृष्ठ- २०२
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गाथा - १०१
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उत्पाद - व्यय-ध्रुव तीनों एकसाथ हैं; यह बात १००वीं गाथा में सिद्ध की है । यहाँ १०१वीं गाथा में यह कह रहे हैं कि उत्पाद, व्यय और ध्रुव अंश (पर्याय) हैं और वे पर्यायें (अंश) द्रव्य की हैं। ऐसा कहकर उन तीनों को एक द्रव्य में ही समा दिया है।
मात्र उत्पाद में, व्यय में या ध्रुव में पूरा द्रव्य नहीं समा जाता; इसलिए वे द्रव्य के आश्रय से नहीं; किन्तु पर्यायों के आश्रय से हैं - ऐसा कहा है । उत्पाद धर्म किसी पर्याय के आश्रय से है, व्ययधर्म भी किसी पर्याय के आश्रय से है और ध्रौव्यरूप धर्म भी किसी पर्याय के आश्रय से है; इसलिए उन्हें पर्याय का धर्म कहा है और पर्यायें द्रव्य के आश्रय से हैं; इसप्रकार अभेदरूप से द्रव्य में सब समा जाते हैं। वस्तु में उत्पाद भी अंश का है, व्यय भी अंश का है और ध्रुवता भी अंश की है। उस एकएक अंश में सम्पूर्ण वस्तु का समावेश नहीं हो जाता अर्थात् द्रव्य की उत्पत्ति, द्रव्य का ही नाश या द्रव्य की ध्रुवता नहीं है ।
जिसप्रकार एक वृक्ष में बीज, अंकुर और वृक्षत्व ऐसे तीन अंश हैं; उनमें बीज अंश का व्यय, अंकुर अंश का उत्पाद और वृक्षत्व अंश की ध्रुवता है । जिसप्रकार ये तीनों अंश मिलकर झाड़ का (वृक्ष का) अस्तित्व है; उसीप्रकार आत्मवस्तु में सम्यक्त्व अंश का उत्पाद, मिथ्यात्व अंश का व्यय और श्रद्धापने की ध्रुवता है।
इसप्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रुव अंशों के हैं, अंशी के नहीं हैं। द्रव्य की अपेक्षा से उत्पाद नहीं है, किन्तु द्रव्य में उत्पन्न होनेवाले भाव की अपेक्षा से उत्पाद है; द्रव्य की अपेक्षा से व्यय नहीं है, किन्तु पूर्व के नष्ट होनेवाले भाव की अपेक्षा से व्यय है और सम्पूर्ण द्रव्य की अपेक्षा से ध्रुवता नहीं है, किन्तु द्रव्य के अखण्ड स्थायी भाव की अपेक्षा से (द्रव्यत्व की अपेक्षा से) ध्रुवता है ।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ- २०३ २०४ २. वही, पृष्ठ- २०४