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प्रवचनसार अनुशीलन का भावान्तर के भाव-स्वभाव से अवभासन है। तात्पर्य यह है कि नाश अन्यभाव के उत्पादरूप ही होता है।
जो कुंभ का सर्ग और पिण्ड का संहार है, वही मिट्टी की स्थिति है; क्योंकि व्यतिरेक अन्वय का अतिक्रमण नहीं करते । जो मिट्टी की स्थिति है, वही कुंभ का सर्ग और पिण्ड का संहार है; क्योंकि व्यतिरेकों द्वारा ही अन्वय प्रकाशित होता है।
यदि ऐसा न माना जाय तो ऐसा सिद्ध होगा कि सर्ग अन्य है, संहार अन्य है और स्थिति अन्य है। ऐसा होने पर केवल सर्गशोधक कुंभ की, उत्पादन कारण का अभाव होने से उत्पत्ति ही नहीं होगी अथवा असत् का उत्पाद होगा।
यदि कुंभ की उत्पत्ति न होगी तो समस्त भावों की उत्पत्ति ही नहीं होगी अथवा यदि असत् का उत्पाद हो तो आकाश पुष्प का भी उत्पाद होगा।
तात्पर्य यह है कि बात मात्र कुंभ की ही नहीं है, अपितु कोई भी कार्य सम्पन्न न होगा अथवा जिसकी लोक में सत्ता ही नहीं है - ऐसे आकाश के फूल और गधे के सींगों की उत्पत्ति भी होने लगेगी; क्योंकि उत्पन्न होने और नहीं होने का कोई नियम ही नहीं रहा।
यदि मिट्टी केवल स्थिति को ही धारण करे तो व्यतिरेकों सहित स्थिति का अभाव होने से स्थिति ही नहीं होगी अथवा क्षणिक को भी नित्यत्व आ जायेगा। तथा यदि मिट्टी की स्थिति न हो तो तो समस्त ही भावों की स्थिति नहीं होगी अथवा क्षणिक नित्य हो जाय तो चित्त के क्षणिक भावों को भी नित्यत्व का प्रसंग आयेगा; इसलिए द्रव्य को उत्तरोत्तर व्यतिरेकों के सर्ग के साथ, पूर्व-पूर्व के व्यतिरेकों के संहार के साथ और अन्वय के अवस्थान ध्रौव्य के साथ अविनाभाववाला और अबाधित भिन्न त्रिलक्षणवाला अवश्य मानना चाहिए।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में मिट्टी के पिण्ड और घड़े का उदाहरण न देकर मिथ्यात्व के अभाव और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के उदाहरण के माध्यम से इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हैं।
गाथा-१००
कविवर वृन्दावनदासजी प्रवचनसार परमागम में इस गाथा के भाव को छह छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जो मूलत: पठनीय है। __ पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को मात्र एक दोहा में इसप्रकार समेट लेते हैं -
(दोहा) वय मझार उतपत्य है, उतपति सो वय मांहि ।
वय उतपति दोउ सुपुनि सुथिर वस्तु विनु नांहि ।।१३।। व्यय में उत्पत्ति है और उत्पत्ति में व्यय है। स्थिति से युक्त वस्तु के बिना उत्पाद और व्यय - दोनों संभव नहीं हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"९९वीं गाथा में द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रुववाला है - यह सिद्ध किया गया था और इस १००वीं गाथा में अधिक स्पष्टता करके द्रव्य के उत्पादव्यय-ध्रुव को एक साथ बतलाते हैं। यदि उत्पाद-व्यय-ध्रुव को एकसाथ ही न मानें तो वस्तु ही सिद्ध नहीं होती।
जिसने एकसमय में वस्तु के उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वभाव को नहीं जाना, उसकी मान्यता में अवश्य कुछ न कुछ दोष आता है।
उत्पाद-व्यय-ध्रुव तीनों को एकसाथ न मानें तो सत् की सिद्धि ही नहीं होती। पर के कारण उत्पाद-व्यय-ध्रुव माने वह तो मिथ्या है ही, साथ ही अपने में भी उत्पाद-व्यय या ध्रुव को एक-दूसरे के बिना माने तो वह भी वस्तु को नहीं जानता है।३।। ___ जगत के चेतन और जड़ सभी पदार्थों में प्रतिसमय उनके स्वभाव से ही उत्पाद-व्यय-ध्रुव हैं। यदि कोई मात्र उत्पाद को ही माने तो वह पदार्थों की नवीन उत्पत्ति ही मानता है और यदि कोई व्यय को ही माने तो वह भी पदार्थों का नाश ही मानता है - ऐसा माननेवाला जीव सर्वज्ञ को, गुरु को, शास्त्र को या ज्ञेयों के स्वभाव को नहीं मानता और वह अपने १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-१८९ २. वही, पृष्ठ-१९४ ३. वही, पृष्ठ-१९४