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________________ गाथा-९८ प्रवचनसार अनुशीलन उठती हैं और जब उसी द्रव्य को द्रव्यदृष्टि से देखा जाता है तो गुण-गुणी का भेदभाव अतीन्द्रिय आनन्द के रसरंग में डूबा रहता है। । यद्यपि समुद्र में कल्लोलों का भेद है; तथापि निश्चयनय से देखने पर कल्लोलों में जो पानी उठ रहा है, वह समुद्र का ही अंग है। अत: जो व्यक्ति दोनों आँखों के समान दोनों नयों से वस्तुस्वरूप को नहीं देखता; वह कुढंगा व्यक्ति मिथ्यादृष्टि है। पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार व्यक्त करते हैं (छप्पय ) स्वयं सिद्ध सो दर्व आप अप सुभाव जुत । स्वयं सिद्ध सत्ता सुदर्व तिहि नैं न होत चुत ।। सत्ता गुन पुनि गुनिय दर्व सु प्रदेस एक हिय । जद्यपिसोगुन गुनिय भेद करिकैंसुभांति विय ।। निज वस्तु स्वरूप विचार उरि इहि प्रकार सु न सरदहइ । सो पुरिष जिनागम के विर्षे मिथ्यामती सुपरसमय ।।११।। अपने स्वभाव में रहनेवाला द्रव्य स्वयंसिद्ध द्रव्य है और वह द्रव्य स्वयं की स्वयंसिद्ध सत्ता से कभी च्युत नहीं होता । सत्ता एक गुण है और द्रव्य गुणी है । गुण और गुणी में प्रदेशभेद नहीं होता। संज्ञा, संख्या आदि की अपेक्षा जो भेद करके समझा जाता है; वह अतद्भावरूप अन्यता है, पृथकता नहीं। जो व्यक्ति अपनी आत्मवस्तु का स्वरूप उक्त प्रकार से विचार कर श्रद्धान नहीं करता; उस मिथ्यामति को परसमय कहा गया है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “वास्तव में अनादि सत् द्रव्य होने से द्रव्यों से दूसरे द्रव्य की अथवा गुण की उत्पत्ति नहीं होती; क्योंकि सर्व द्रव्य स्वभाव से ही अपने गुणपर्याय से सिद्ध हुए हैं; किन्तु कोई ईश्वर कर्ता है; इसलिए वे हुए हैं - ऐसा नहीं है। ऐसा अनादि-अनंत व्यवस्थितरूप स्वयं अपनी सत्ता से है। सभी द्रव्य अपने गुण-पर्याय से ही स्वयंसिद्ध हैं, कोई परमेश्वर उनका कर्ता नहीं है। अपितु उनकी नई-नई पर्याय का उत्पाद और पुरानी का व्यय करनेवाला स्वयं वह द्रव्य है। ___ अब, जैसा द्रव्य त्रिकाली होने से नया नहीं होता; वैसे ही सत्ता नाम का गुण भी गुणी - ऐसे द्रव्य में अनादि स्वभाव से ही सिद्ध है; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य का सत् है - ऐसा भाव द्रव्य के सत्तास्वरूप स्वभाव का ही बना हुआ है। द्रव्य से सत्ता पृथक् नहीं है कि जिसके जुड़ने से द्रव्य सत्तावान कहलाये। गुण-गुणी का प्रदेशभेद तो है ही नहीं; गुणभेद भी भेददृष्टि को मुख्य करने पर ही मालूम पड़ते हैं; किन्तु अभेददृष्टि से देखने पर ऐसा भेद नहीं दिखता। द्रव्य में डूब जाने पर भेद के भी विकल्प नहीं उठते तो फिर परद्रव्य-क्षेत्रादि को देखने की बात ही नहीं है।' प्रत्येक आत्मा और परमाणु आदि पदार्थों की अनादिस्वसत्ता स्वभाव से रचित हैं; इसीलिए द्रव्य स्वयमेव सत् है - ऐसा जो नहीं मानता, वह आत्मा को नहीं मानता। प्रत्येक परमाणु की क्रिया उसी परमाणु से होती है और आत्मा की क्रिया आत्मा से ही होती है। प्रत्येक पदार्थ परिपूर्ण सामर्थ्यवाला अनादि सत् होने से स्वयं ही अपना-अपना ईश्वर है; इसीलिए वह दूसरे किसी संयोग, क्षेत्र, काल आदि की अपेक्षा नहीं रखता और अपनी नई-नई अवस्थाओं को स्वयं करता है - इसका नाम सम्यक् एकान्त है और यही धर्म है - ऐसा जो नहीं मानता वह मिथ्या एकांतवादी परसमय है, मूढ है। इसप्रकार माने बिना धर्म नहीं होता; उसके दया-दान, पूजा-भक्ति आदि सभी एक के बिना के शून्य है।" १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-१३१ ३. वही, पृष्ठ-१३४ २. वही, पृष्ठ-१३२ ४. वही, पृष्ठ-१३४
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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