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प्रवचनसार अनुशीलन इसमें आगामी अधिकार की सूचना भी है। द्रव्य की चर्चा हुई और अब चारित्र की चर्चा आरंभ होगी। अगले प्रकरण के प्रथम छन्द की संगति भी इस छन्द से बैठती है; इसलिए तत्त्वानुसार आचरण और आचरण के अनुसार तत्त्व को ग्रहण करते हुए मोक्षमार्ग में आरोहण करना ही सभी आत्मार्थी बन्धुओं का एकमात्र कर्तव्य है।
यह तो सर्वविदित ही है कि आचार्य जयसेन आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्व-प्रदीपिका टीका में समागत नामों को स्वीकार करते हुए भी इन अधिकारों के नाम तात्पर्यवृत्ति टीका में क्रमशः सम्यग्ज्ञानाधिकार, सम्यग्दर्शनाधिकार और सम्यक्-चारित्राधिकार रखते हैं। ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार का नाम सम्यग्ज्ञानाधिकार रखने का एक कारण यह भी हो सकता है कि इस अधिकार में अतीन्द्रिय ज्ञान अर्थात् सर्वज्ञता की चर्चा बहुत विस्तार से की गई है।
ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार का नाम सम्यग्दर्शनाधिकार इसलिए रखा गया है कि इसमें प्रतिपादित वस्तुस्वरूप को समझे बिना सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता।
जब उक्त दो अधिकार सम्यग्ज्ञानाधिकार और सम्यग्दर्शनाधिकार हो गये तो फिर चरणानुयोग चूलिका को सम्यक्चारित्राधिकार होना ही था।
ऐसा होने पर भी आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में भी इस ग्रंथ को यहीं समाप्त मान लेते हैं। वे इसका कारण देते हुए टीका की अन्तिम पंक्ति में लिखते हैं कि प्रतिज्ञा की पूर्णता हो जाने से ग्रन्थ की पूर्णता यहाँ ही जानना चाहिए।
आचार्य अमृतचन्द्र इन महाधिकारों को श्रुतस्कन्ध भी कहते हैं। जैसा कि तत्त्वप्रदीपिका टीका के अन्तिम वाक्य में लिखा गया है कि आचार्य अमृतचन्द्र विरचित प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन नामक द्वितीय श्रुतस्कंध समाप्त हुआ।
इसीप्रकार का वाक्य प्रथम महाधिकार के अन्त में भी पाया जाता है।
प्रवचनसार पद्यानुवाद
ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार
द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनाधिकार सम्यक् सहित चारित्रयुत मुनिराज में मन जोड़कर। नमकर कहँ संक्षेप में सम्यक्त्व का अधिकार यह ॥१०॥ गुणात्मक हैं द्रव्य एवं अर्थ हैं सब द्रव्यमय । गुण-द्रव्य से पर्यायें पर्ययमूढ़ ही है परसमय ।।१३।। पर्याय में ही लीन जिय परसमय आत्मस्वभाव में। थित जीव ही हैं स्वसमय - यह कहा जिनवरदेव ने ।।१४।। निजभाव को छोड़े बिना उत्पादव्ययध्रुवयुक्त गुणपर्ययसहित जो वस्तु है वह द्रव्य है जिनवर कहें ।।९५।। गुण-चित्रमयपर्याय से उत्पादव्ययध्रुवभाव से । जो द्रव्य का अस्तित्व है वह एकमात्र स्वभाव है।।१६।। रे सर्वगत सत् एक लक्षण विविध द्रव्यों का कहा। जिनधर्म का उपदेश देते हुए जिनवरदेव ने ।।९७।। स्वभाव से ही सिद्ध सत् जिन कहा आगमसिद्ध है। यह नहीं माने जीव जो वे परसमय पहिचानिये ।।१८।। स्वभाव में थित द्रव्य सत् सत् द्रव्य का परिणाम जो। उत्पादव्ययध्रुवसहित है वह ही पदार्थस्वभाव है।।१९।। भंगबिन उत्पाद ना उत्पाद बिन ना भंग हो। उत्पादव्यय हो नहीं सकते एक ध्रौव्यपदार्थ बिन ।।१०।। पर्याय में उत्पादव्ययधूव द्रव्य में पर्यायें हैं। बस इसलिए तो कहा है कि वे सभी इक द्रव्य हैं।।१०१।। उत्पादव्ययथिति द्रव्य में समवेत हों प्रत्येक पल । बस इसलिए तो कहा है इन तीनमय हैं द्रव्य सब ।।१०२।। उत्पन्न होती अन्य एवं नष्ट होती अन्य ही।
पर्याय किन्तु द्रव्य ना उत्पन्न हो ना नष्ट हो ।।१०३।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा १०