________________
गाथा-१९७-१९८
४४४
प्रवचनसार अनुशीलन उसीप्रकार केवली भगवान केवलज्ञानरूप विद्या की प्राप्ति के लिए और उसके फलस्वरूप अनंतसुख की प्राप्ति के लिए छद्मस्थ दशा में शुद्धात्मा की भावनारूप ध्यान करते थे। अब उस ध्यान से केवलज्ञानरूप विद्या सिद्ध हो गई है तथा उसके फलस्वरूप अनंतसुख भी प्राप्त हो गया है; तब वे किसलिए ध्यान करते हैं अथवा किस पदार्थ का ध्यान करते हैं - शिष्य की ओर से ऐसा प्रश्न है अथवा ऐसा आक्षेप है।
इस प्रश्न या आक्षेप का दूसरा कारण भी है - पदार्थ के परोक्ष होने पर ध्यान होता है, पर केवली भगवान के तो सभी पदार्थ प्रत्यक्ष हैं, तब ध्यान कैसे करते हैं?
इसके उत्तर में आचार्यदेव कहते हैं कि वे केवली भगवान अतीन्द्रिय अनंत आत्मा के आश्रय से उत्पन्न सुख का ध्यान करते हैं, अनुभव करते हैं, उसरूप परिणमन करते हैं।
इससे ज्ञात होता है कि केवली भगवान के अन्य विषय में चिन्ता का निरोध लक्षण ध्यान नहीं है; किन्तु इस परमसुख के अनुभव को अथवा ध्यान के कार्यभूत कर्मों की निर्जरा को देखकर, ध्यान शब्द से उपचरित किये जाते हैं।
सयोग केवली के तीसरा शुक्लध्यान और अयोग केवली के चौथा शुक्लध्यान होता है - ऐसा जो कथन है, उसे उपचार से किया गया कथन जानना चाहिए - ऐसा गाथा का अभिप्राय है।" __कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं और उनकी तत्त्वप्रदीपिका
और तात्पर्यवृत्ति नामक टीकाओं के भाव को ३ मनहरण और ३ दोहों - इसप्रकार कुल मिलाकर ६ छन्दों में विस्तार से समझाते हैं; जो इसप्रकार है -
(मनहरण) प्रश्न - घातिकर्मघाति भलीभांत जो प्रतच्छ सर्व,
वस्तु को सरूप निज ज्ञानमाहिं धरै है। ज्ञेयनि के सत्ता में अनंत गुन-पर्ज शक्ति,
ताहू को प्रमानकरि आगे विसतरै है।।
असंदेहरूप आप ज्ञाता सिरताज वृन्द,
संशय विमोह सब विभ्रम को हरै है। ऐसा जो श्रमण सरवज्ञ वीतराग सो,
बतावो अब कौन हेत काकोध्यानकर है।।१२५।। जिन्होंने घातिया कर्मों का नाश करके वस्तुस्वरूप को भलीभांति जानकर अपने ज्ञान में धारण किया है; ज्ञेयों की सत्ता में अनन्त शक्तियाँ हैं, गुण हैं, पर्यायें हैं, उनके भी जो प्रमाण से असंदिग्ध ज्ञाता हैं, सबके सिरताज हैं; वृन्दावन कवि कहते हैं कि वे सबप्रकार संशय, विभ्रम,
और विमोह से रहित हैं; ऐसे सर्वज्ञ वीतरागी श्रमण अर्थात् अरहंत भगवान अब किसलिए और किसका ध्यान करते हैं?
मोह उदै अथवा अज्ञानता सों जीवनि के,
सकल पदारथ प्रतच्छ नाहि दरसै। यातें चित्त चाह की निवाह हेत ध्यान करे,
अथवा संदेह के निवारिवे को तरसै।। सो तो सरवज्ञ वीतराग जू के मूल नहिं,
घातिविधि घातें ज्ञानानंद सुधा बरसै। इच्छा आवरन अभिलाष न संदेह तब,
___ कौन हेत ताको ध्यावै ऐसो संशै परसै ।।१२६।। संसारी जीवों को मोह के उदय अथवा अज्ञानता से सम्पूर्ण पदार्थ दिखाई नहीं देते हैं; इसलिए वे मन की इच्छा पूरी करने के लिए ध्यान करते हैं अथवा संदेह के निवारण के लिए तरसते हैं; इसलिए ध्यान करते हैं।
यह बात तो वीतरागी-सर्वज्ञ भगवान के मूल में भी नहीं है; क्योंकि उन्होंने घातिया कर्मों का नाश कर दिया है, इसकारण उनके तो निरंतर ज्ञानानन्द अमृत बरसता है। उनके इच्छा नहीं, आवरण नहीं, अभिलाषा नहीं, संदेह नहीं; तब फिर वे किसकारण से ध्यान करते हैं? मेरे हृदय में इसप्रकार का संशय उत्पन्न हो रहा है।