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________________ ४३८ गाथा-१९६ ४३९ प्रवचनसार अनुशीलन मोह घटे वैरागता, होत तसें सब भोग । निजसुभावसुखमाहिं तब, लीन होय उपयोग ।।१२०।। तहां सुमन को बैंच के, एक निजातम भाव । तामधि आनि झुकाइये, भेदज्ञानपरभाव ।।१२१।। तहां सो मन की यह दशा, होत और से और । जैसे काग-जहाज को, सूझै और न ठौर ।।१२२।। जोकहुँ इत उतको लखै, तौ न कहूं विसराम । तब हि होय एकाग्र मन, ध्यावै आतमराम ।।१२३।। ऐसे आतम ध्यान तैं, मिलै अतिन्द्री शर्म । शुद्ध बुद्ध चिद्रूपमय, सहज अनाकुल धर्म ।।१२४।। इस जगत में पाँच इन्द्रियों के जितने भी विषय हैं; यह मन सदा रात-दिन उनमें ही भ्रमता रहता है। ___मोह घटे, सब भोग तजे, वैराग्य हो; तब निज स्वभाव के अतीन्द्रिय सुख में उपयोग लीन होता है। - भेदज्ञान के प्रभाव से मन को इन्द्रिय-विषयों से खींचकर अपने आत्मा में झुका दीजिए। जिसप्रकार सागर के मध्य में स्थित जहाज पर बैठे कौआ को और कोई दूसरा स्थान दिखाई नहीं देता; उसीप्रकार आत्मा में रुचि रहनेवाले मन की भी यही दशा होती है कि उसे और कुछ भी दिखाई नहीं देता। ___ वह बहुत यहाँ-वहाँ देखता है; पर कहीं भी विश्राम का स्थान दिखाई नहीं देता; तब मन एकाग्र होकर आत्मा का ध्यान करता है। इसप्रकार के आत्मध्यान से अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होती है। शुद्ध, बुद्ध और चिद्रूपमय यह सहज अनाकुलतारूप धर्म है। पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं (सवैया इकतीसा) मोह मल सहज सुभाव जल सौं सुधोइ पंच इंद्री विषय विकार तैं विमुक्त है। चित्त की चपलताई रोकि करि वाहिर तैं निज आतमा स्वरूप के विर्षे सुजुक्त है ।। सुद्ध आतमीक ध्यान कौ सुकरतार हो है सोई संत कही जैसी आगम सु उक्त है। आसरे विनासुज्यों समुद्र केजिहाज को सु पंछी उड़ि कहुँ और अंत कौं न धुक्त है ।।१५९।। अपने सहजस्वभावरूप जल से मोहरूपी मल को धोकर जो पंचेन्द्रिय विषयों के विषय-विकार से मुक्त हो गये हैं और चित्त की चपलताई को रोककर अपने उपयोग को बाहर से हटाकर अपने आत्मस्वरूप में संयुक्त हो गये हैं। जिसप्रकार समुद्र के मध्य में स्थित जहाज पर बैठा पंछी अन्य आश्रय के अभाव में जहाज को छोड़कर कहीं नहीं जाता; उसीप्रकार आत्मा आत्मध्यान में रहता है, आत्मध्यान ही करता है। - यही आगम में कही गयी बात है और सन्तों ने भी इसीप्रकार बताया है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “परद्रव्य के कारण लाभ-हानि मानना दर्शनमोह है और परद्रव्य की प्रवृत्ति में आसक्ति होना चारित्र मोह है। जिसने दर्शनमोह और चारित्रमोह का अभाव किया है, उसे परद्रव्य की प्रवृत्ति का अभाव होता है। १. चारित्र का मूल सम्यग्दर्शन है। जो जीव ज्ञानस्वभाव की सच्ची प्रतीति करता है, उसे ही अंतर रमणतारूप चारित्र प्रगट होता है; किन्तु सम्यग्दर्शन बिना चारित्र प्रगट नहीं होता। २. राग-द्वेष का मूल दर्शनमोह है। जो राग-द्वेष होता है, उसका कारण परपदार्थ के प्रति एकत्वबुद्धिरूप मोह है। दर्शनमोह टले बिना राग द्वेष नहीं टलता। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-४३३
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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