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________________ ४२६ प्रवचनसार अनुशीलन है, आदि - अंतवाला है, परतः सिद्ध है; इसकारण उससे धर्म नहीं होता । " यहाँ आचार्य भगवान बहुत स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि हे भाई! यदि तुझे धर्म करना हो तो परपदार्थों से दृष्टि उठा ले । कुटुंबाद लेकर देव गुरु, तीर्थंकर तथा सिद्ध जीव; एक परमाणु से लेकर अचेतन महास्कंध तक के जड़ पदार्थ; लौकिक ग्रंथों से लेकर समयसार तक के शास्त्र सभी परतः सिद्ध और आदि-अंतवाले हैं। जिसप्रकार कोई मनुष्य अलग-अलग रास्ते से आकर मिलें और अलग-अलग चले जाते हैं; उसीप्रकार कुटुंब, देव, गुरु - सभी संयोग हैं; अतः छूट जाते हैं। तथा ये परतः सिद्ध होने से अध्रुव हैं। इनके लक्ष्य धर्म अथवा सुख नहीं होता; इसलिए इनकी दृष्टि छोड़कर ध्रुव आत्मा की दृष्टि कर ! तो धर्म और सुख होगा। बाह्य संयोग होने पर भी धर्मी जीव की उन पर दृष्टि नहीं; अपितु ध्रुव शुद्ध आत्मा के ऊपर ही दृष्टि है। २" उक्त गाथाओं में सब कुछ मिलाकर यही कहा गया है कि भगवान आत्मा ज्ञानात्मक है, दर्शनरूप है, अतीन्द्रिय महापदार्थ है, अचल है। और निरालम्ब है। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग तो आत्मा के लक्षण हैं और न तो इस भगवान आत्मा का स्वभाव इन्द्रियों के माध्यम से देखने-जानने का है और न इन्द्रियों के माध्यम से देखने-जानने में आये - ऐसा ही है; इसलिए यह भगवान आत्मा अतीन्द्रिय महापदार्थ है । यह भगवान आत्मा ज्ञेयरूप परपदार्थों की पर्यायों के ग्रहण-त्याग से रहित होने पर अचल है और उन्हीं ज्ञेयरूप परपदार्थों का आलम्बन न लेने से निरालम्ब है । इसप्रकार उक्त पाँच विशेषणों के कारण यह भगवान आत्मा एक है। और एक होने से शुद्ध है। तात्पर्य यह है कि यह एकता ही इसकी १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ ४२१-४२२ २. वही, पृष्ठ ४२३ गाथा - १९२-१९३ ४२७ शुद्धता है। ऐसा शुद्धात्मा ही ध्रुव होने से एकमात्र उपलब्ध करने योग्य है । आत्मा के संयोग में आनेवाले शरीर, धन, शत्रु, मित्र, संसारिक सुख-दुख आदि सभी संयोग ध्रुव नहीं हैं, अध्रुव हैं; इसलिए उपलब्ध करने योग्य नहीं हैं। यद्यपि १९२वीं गाथा में आत्मा के सात विशेषण दिये गये हैं, जो इसप्रकार हैं- ज्ञानात्मक, दर्शनरूप, अतीन्द्रिय महापदार्थ, अचल, अनालंब, ध्रुव और शुद्ध । कविवर वृन्दावनदासजी ने भी सात विशेषण बताये हैं; पर आचार्य अमृतचन्द्र ने उन्हें अलगरूप में प्रस्तुत किया है। वे इन्हें इस रूप में प्रस्तुत करते हैं - ज्ञानात्मक, दर्शनभूत, अतीन्द्रिय महापदार्थ, अचल और अनालम्ब - इन पाँच विशेषणों के कारण आत्मा एक है। यह एकता ही शुद्धता है। सत्, अहेतुक, स्वतः सिद्ध और अनादि-अनन्त होने से ध्रुव है। प्रस्तुतिकरण कैसा भी हो, अन्ततः सात विशेषण तो सभी ने बताये हैं। शिथिलाचार को रोकना कोई साधारण काम नहीं है, वह तो शक्तिशाली समर्थ लोगों का काम है । उन चार हजार नवदीक्षित राजाओं को भी तो इन्द्र | ने ही रोका था, किसी साधारण व्यक्ति ने नहीं। यह काम तो समाज के उन कर्णधारों का है, जो समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, समाज को संचालित करते हैं। यदि वे स्वयं शिथिलाचार का पोषण करते हैं तो फिर हम और आप क्या कर सकते हैं ? अतः मैं तो सभी आत्मार्थी बंधुओं से यही अनुरोध करता हूँ कि इसमें अपने को उलझायें नहीं। जो जैसा करेगा, वह वैसा भरेगा; हम किस-किस को बचाते फिरेंगे ? हाँ, हम स्वयं वस्तु का सच्चा स्वरूप समझकर स्वयं को अवश्य बचा सकते हैं। - पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, पृष्ठ-५३
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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