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________________ गाथा-१८८ ४०३ प्रवचनसार गाथा १८८ विगत गाथाओं में बंध का स्वरूप निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक स्पष्ट करने के उपरान्त अब आगामी गाथा में यह कहते हैं कि यह आत्मा स्वयं ही बंध है। गाथा मूलत: इसप्रकार हैसपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोहरागदोसेहिं । कम्मरएहिं सिलिट्ठो बंधो त्ति परूविदो समये ।।१८८।। (हरिगीत) सप्रदेशी आतमा रुस-राग-मोह कषाययुत । हो कर्मरज से लिप्त यह ही बंध है जिनवर कहा ।।१८८।। सप्रदेशी यह आत्मा यथासमय मोह-राग-द्वेष के द्वारा कषायित होने से कर्मरज से बद्ध होता हुआ बंध' कहा जाता है। इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जिसप्रकार इस जगत में प्रदेशवाला होने से वस्त्र लोघ-फिटकरी आदि से कषायित होता है और कषायित होने से मंजीठादि रंग से सम्बद्ध होता हुआ अकेला ही रंगा हुआ देखा जाता है; उसीप्रकार सप्रदेशी होने से यह आत्मा भी यथाकाल मोह-राग-द्वेष के द्वारा कषायित होने से कर्मरज से लिप्त होता हुआ अकेला ही बंध है - ऐसा जानना चाहिए; क्योंकि निश्चय का विषय शुद्धद्रव्य है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में इस गाथा के भाव को आचार्य अमतचन्द्रकत तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं। ____ कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को एक छन्द में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं। (मनहरण) सो असंख प्रदेश प्रमान जगजीवनि के, मोह राग दोष ये कषायभाव संग है। ताही ते करमरूप रजकरि बँधै ऐसे. सिद्धांत में कही वृन्द बंध की प्रसंग है ।। जैसे पट लोध फटकड़ी आदि तैं कसैलो, चढत मजीठ रंग तापै सरवंग है। तैसे चिदानंद के असंख परदेश पर, चढत कषाय ते करम रज रंग है।९७।। असंख्यातप्रदेशी संसारी जीवों के मोह-राग-द्वेषरूप कषायभावों का साथ है। उक्त मोह-राग-द्वेषभावों से ये संसारी जीव कर्मरूपी रज से लिप्त होते हैं - यह बात करणानुयोगसंबंधी सिद्धान्तशास्त्रों में बंध के प्रसंग में कही है। जिसप्रकार कपड़ा लोघ, फिटकरी आदि के संयोग से कषायित (कसैला) होता है; तब उस पर सर्वांग मजीठ रंग चढ़ जाता है; उसीप्रकार आत्मा के असंख्य प्रदेशों पर कषाय से कर्मधूलि का रंग चढ जाता है। तात्पर्य यह है कि संसारी जीवों में इसप्रकार कर्मबंध होता है। पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को एक पद्य में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं (छप्पय ) ज्यों हररा फटकरिय लोधु तिहि को सुपाइ संगु। सेत वस्त्र सो होहि अरू न गहि कमजीठ रंगु ।। जैसें सप्रदेसी सु जीव संसार विर्षे इय । राग दोष अरु मोहभाव करिकै प्रकार तिय ।। ग्यानावरनादिसु अष्टविधि कर्मनिसौंसुवधै सही। इहि भांति जिनेस्वरदेव नैं बंध कथा परगट कही।।१५०।। जिसप्रकार लोध, हर्र और फिटकरी की संगति पाकर इनसे संस्कारित होकर सफेद वस्त्र मजीठ रंग को ग्रहण करके सर्वांग लाल हो
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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