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________________ ३७३ ३७२ प्रवचनसार अनुशीलन कारण दोपने को प्राप्त होता है। उनमें से मोह और द्वेषभाव अशुभरूप होते हैं और रागभाव शुभ और अशुभ - दोनों प्रकार का होता है; क्योंकि राग विशुद्धि और संक्लेश युक्त होता है। परिणाम दो प्रकार का होता है - परद्रव्यप्रवृत्त और स्वद्रव्यप्रवृत्त । पर के द्वारा उपरक्त होने से परद्रव्यप्रवृत्तपरिणाम विशिष्ट परिणाम है और पर के द्वारा उपरक्त न होने से स्वप्रवृत्तपरिणाम अवशिष्ट परिणाम है। विशिष्ट परिणाम के पूर्वोक्त दो भेद हैं - शुभ परिणाम और अशुभ परिणाम । पुण्यरूप पुद्गल के बंध का कारण होने से शुभ परिणाम पुण्य है और पापरूप पुद्गल के बंध का कारण होने से अशुभपरिणाम पाप हैं। अविशिष्ट परिणाम तो शुद्ध होने से एक है; इसलिए उसके भेद नहीं है। वह अविशिष्ट परिणाम यथाकाल संसार दु:ख के हेतुभूत कर्मपुद्गल के क्षय का कारण होने से संसार दु:ख का हेतुभूत कर्मपुद्गल का क्षयस्वरूप मोक्ष ही है।” आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं का भाव मूलतः तो तत्त्व-प्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं; परन्तु अन्त में समागत 'समय' शब्द का अर्थ ‘परमागम' और 'काललब्धि' करते हैं। ___ अन्त में किंच कहकर उन्होंने विषयवस्तु का गुणस्थान परिपाटी से विशेष स्पष्टीकरण किया है; जो मूलत: पठनीय है। कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (मनहरण) परिनाम अशुद्ध तैं पुग्गलकरम बंध, सोई परिनाम राग-दोष-मोहमई है। तामेंमोह दोष तो अशुभ ही हैं सदाकाल, राग में दुभेद वृन्द वेद वरनई है।। पंच परमेश्वर की भक्ति धरमानुराग, यह शुभराग भाव कथंचित लई है। गाथा-१८०-१८१ विषय कषायादिक तामें रतिरूप सो, अशुभ राग सरवथा त्यागजोग तई है।।८७।। अशुद्ध परिणामों से पौद्गलिक कर्मों का बंध होता है और अशुद्धपरिणाम मोह-राग-द्वेषरूप हैं। इनमें मोह (दर्शनमोह मिथ्यात्व) और द्वेष तो हमेशा अशुभ ही होते हैं, इसप्रकार त्यागने योग्य ही हैं। कवि कहते हैं कि शास्त्रों में राग के दो भेद बताये गये हैं। पंचपरमेष्ठी को भक्तिरूप धर्मानुराग शुभभाव है और वह कथंचित् उपादेय है; परन्तु पंचेन्द्रिय विषयों के अनुराग और कषायरूप भावों में रतिरूप भाव अशुभराग है, जो सर्वथा त्यागने योग्य कहा है। (मनहरण) परवस्तु मांहिं जो पुनीत परिनाम होत, ताको पुन्य नाम वृन्द जानो हुलसंत है। तैसे ही अशुभ परिनाम परवस्तु विर्षे, ताको नाम पाप संकलेशरूप तंत है ।। जहाँ परवस्तुविर्षे दोऊ परिनाम नहिं, केवल सुसत्ता ही में शुद्ध वरतंत है। सोई परिनाम सबदुःख के विनाशन को, कारन है ऐसे जिन शासन भनंत है।।८८।। परवस्तुओं के लक्ष्य से जो पवित्र परिणाम होते हैं; उन्हें पुण्य नाम से कहा जाता है, वे प्रसन्नतारूप होते हैं। इसीप्रकार परवस्तुओं के लक्ष्य से जो संक्लेशरूप परिणाम होते हैं; उन अशुभ परिणामों को पाप कहते हैं। जहाँ परवस्तु के लक्ष्य से होनेवाले शुभाशुभ - दोनों परिणाम न होकर स्वसत्ता के लक्ष्य से केवल शुद्ध परिणाम होते हैं, वे परिणाम ही सब दुःखों के नाश के कारण हैं - ऐसा जैनशासन में कहा गया है। पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं का भाव दो पद्यों में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं (सवैया इकतीसा) पुग्गल वरगना स्वरूप द्रव्य बंध सोई असुद्धोपयोग परिनाम तैं सु ठीक है।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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