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________________ गाथा-१७७-१७८ ३५९ प्रवचनसार अनुशीलन परस्पर परिणाम के निमित्तमात्र से जो जीव और पुद्गल का विशिष्टतर परस्पर अवगाह है, वह उभयबंध अर्थात् पुद्गलजीवात्मक बंध है। लोकाकाश तुल्य असंख्यात प्रदेशी होने से यह आत्मा सप्रदेश है। आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणा के आलंबनवाला परिस्पन्द (कंपन) जिसप्रकार होता है; उसीप्रकार से कर्मपुद्गल के समूह स्वयमेव कंपन करते हुए प्रवेश करते हैं, रहते हैं और जाते भी हैं तथा यदि जीव के मोह-राग-द्वेषरूप भाव हों तो बंधते भी हैं। इसलिए निश्चित होता है कि द्रव्यबंध का हेतु भावबंध है।" आचार्य जयसेन इन गाथाओं के भाव को मूलत: तो तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं; किन्तु दूसरा अर्थ करते हुए कहते हैं कि प्रवेश करते हैं अर्थात् प्रदेशबंध, ठहरते हैं अर्थात् स्थितिबंध, फल देकर चले जाते हैं अर्थात् अनुभागबंध और बंधते हैं अर्थात् प्रकृतिबंध - इसप्रकार इन गाथाओं में चारों बंधों की चर्चा आ गई है। कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं के भाव को दो मनहरण कवित्तों और तीन दोहों में छन्दोबद्ध करके इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (मनहरण) पुव्वबंध पुग्गल सों फरस विभेद करि, नयो कर्मवर्गना के पिंड को गथन है। जीव के अशुद्ध उपयोग राग आदि करि, होत मोह रागादि विभाव को नथन है।। दोऊ को परस्पर संजोग एक थान सोई, जीव पुग्गलातम के बंध को कथन है। ऐसे तीन बंधभेद वेद में निवेद वृन्द, भेदज्ञानीजनित सिद्धांत को मथन है।।७९।। पूर्व में बंधे हुए पौद्गलिक कर्मों के स्निग्ध-रूक्ष स्पर्शों से नवीन कार्माण वर्गणायें कर्मरूप पिण्ड का नया गठन करती हैं। जीव के रागादिरूप अशुद्धोपयोग से नये मोह-राग-द्वेषादि विभावों की संरचना होती है। उक्त दोनों का एक स्थान पर संयोग होने पर जीव-पुद्गलात्मक बंध होता है - ऐसा कहा जाता है। भेदज्ञानी जीवों ने सिद्धान्त शास्त्रों का मंथन करके बंध के पुद्गलबंध, जीवबंध और उभयबंध - ऐसे तीन भेद बतायें हैं। (मनहरण) असंख्यात प्रदेश प्रमान यह आतमा सो, ताके परदेश विषै ऐसे उर आनिये। पुग्गलीक कारमान वर्गना को पिंड आय, करत प्रवेश जथाजोग सरधानिये ।। फेरि एक छेत्र अवगाह करि बंधत है, थिति परमान संग रहैं ते सुजानिये। देय निज रस खिर जाहिं पुनि आपुहि सों, ऐसो भेद भर्म छेद भव्य वृन्द मानिये ।।८।। असंख्यात प्रदेशी इस आत्मा के प्रदेशों में पौद्गलिक कार्माण वर्गणाओं का पिण्ड आकार यथायोग्य प्रवेश करता है। इस बात को हृदय में लाकर यथायोग्य श्रद्धान करना चाहिए। फिर आत्मा और पौद्गलिक कार्माण वर्गणायें एकक्षेत्रावगाहरूप बंधन को प्राप्त होती हैं और स्थिति के अनुसार साथ-साथ रहती हैं और काल आने पर रस देकर अपने-आप खिर जाती हैं। हे भव्यजीवो ! भ्रम को मिटाकर ऐसे इस रहस्य को जानना चाहिए। (दोहा) काय-वचन-मन जोगकरि, जो आतम परदेश । कं परूप होवें तहां, जोग बंध कहि तेस ।।८१।। तासु निमित्त तैं आवही, करमवरगना खंध । सो ईर्यापथ नाम कहि, प्रकृति प्रदेश सुबंध ।।८२।। राग विरोध विमोह के, जैसे भाव रहाहिं । ताहि के अनुसार तैं, थिति अनुभाग बँधाहि ।।८३।।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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