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________________ प्रवचनसार अनुशीलन मूर्तिकरूपादि गुणों को धारण करनेवाले इस पुद्गलद्रव्य के स्पर्शवान होने से अनेकप्रकार के परमाणु परस्पर बंध कर स्कन्ध बनते हैं - यह बात तो हम प्रमाण से जानते हैं और मानते भी हैं; किन्तु मूर्तिक पुद्गल से विपरीत अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक पुद्गल से कैसे बंध सकता है ? यह तो बड़े अचंभे की बात है । ३४० मुझे तो यह अमिलमिलाप ऐसा लगता है कि जैसे नितंब कान से जुड़ रहा हो। ( मनहरण ) रूपी दर्व घट-पट आदिक अनेक तथा, ताके गुन- परजाय विविध वितान सौ । तिनको अरूपी जीव देखे जाने भली-भांत, यह तो अबाध सिद्ध प्रतच्छ प्रमान सों ।। जो न होत अस्तरूप वस्त यह आतमा तौ, कैसे ताहि देखतौ औ जानतौ महान सों। तैसे ताके बंध को विधान हु सुजानौ वृन्द, समिलमिलाप ज्यों " शब्द जुरें कान सों" ।। ७० ।। विविध गुण-पर्यायवाले घट-पट आदि अनेक रूपी द्रव्यों को अरूपी जीव भली-भाँति देखता जानता है। यह तो अबाधित प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध बात है । यदि इस आत्मा का अस्तित्व नहीं होता तो वह उन्हें कैसे देखताजानता ? इसीप्रकार जीव और पुद्गलकर्म के बंध का विधान जानना चाहिए । इसप्रकार यह अमिलमिलाप नहीं है, अपितु जिसप्रकार शब्द कान से जुड़ते हैं; उसीप्रकार का सहज मिलाप है। (दोहा) देखन जानन की शकति, जो न जीवमँह होत । तब किहि विधि संसार में, बंधन होत उदोत । ।७१ ।। गाथा - १७३-१७४ मोह राग रुष भावकरि, देखत जानत जीव । ताही भाव विकार सों, आपु हि बँधत सदीव ।। ७२ ।। राग चिकनताई भई, दोष रुच्छता भाय । याही के सुनिमित्त तैं, पुद्गलकरम बँधाय ।। ७३ ।। आतम के परदेश प्रति, दर्वित कर्म अनाद । तिनसों नूतन करम को, बंध परत निरवाद ।।७४ ।। यह विवहारिक बंधविधि, निहचै बंध न सोय | जहँ अशुद्ध उपयोग है, मोह त्रिकंटक जोय ।। ७५ ।। यदि जीव में देखने-जानने की शक्ति नहीं होती तो फिर संसार में बंधन की जानकारी भी कैसे होती । यह देखने-जाननेवाला जीव मोह-राग-द्वेषरूप विकारी भावों से सदा स्वयं बंधन को प्राप्त होता है। राग स्निग्धभाव है और द्वेषभाव रूक्षता रूप है - इन्हीं के निमित्त से पुद्गल कर्मों का बंध होता है। आत्मा के प्रदेशों में अनादिकाल से द्रव्यकर्मों का बंधन है; उनसे नये कर्मों का बंध होता है- यह बात निर्विवाद है। यह बंधन की प्रक्रिया व्यवहार से कही गई है। निश्चयनय से तो बंध होता ही नहीं है। जहाँ अशुद्धोपयोग है, वहाँ तीनप्रकार का मोह होता ही है। ( मनहरण ) जैसे ग्वालबालगन बैल सांचे माटीनि के, देखि जानि तिन्हें अपनाये राग जोर सों। तिनके निकट कोऊ मारै छोरै बैलनिकों, तबै ते अधीर होंय रोवें धोवें शोर सों ।। तहां अब करो तो विचार भेदज्ञानी वृन्द, बंधे वे वयल सो की ममता की डोर सों ।। तैसें पुद्गल कर्म बाहिज निमित्त जानो, बंध्यो जीव निचै अशुद्धता मरोर सों ।।७६ ।। ३४१
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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