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________________ ३२० ज्ञान नहीं है; ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। * जिस उपयोग को ज्ञेयपदार्थों का आलंबन नहीं है; परन्तु स्व का आलंबन है - ऐसे उपयोग लक्षणवाला तेरा आत्मा है। इसप्रकार तेरे आत्मा को बाह्य पदार्थों के आलंबनयुक्त ज्ञान नहीं है; परन्तु स्वभाव के आलंबनयुक्त ज्ञान है। अब इस आठवें बोल में उपयोग बाहर से नहीं लाया जाता, ऐसा कहते हैं। बोल १. आत्मा द्रव्य है, वह स्वयं इन्द्रियों से स्व तथा पर को जाने, उसका ऐसा स्वरूप नहीं है। बोल २. आत्मा स्वयं इन्द्रियों से ज्ञात हो, उसका ऐसा स्वरूप नहीं है। बोल ३. धूम्र द्वारा अग्नि ज्ञात हो, उसीप्रकार आत्मा इन्द्रियों के अनुमान से ज्ञात हो, उसका ऐसा स्वभाव नहीं है। प्रवचनसार अनुशीलन बोल ४. अन्य द्वारा आत्मा केवल अनुमान से ज्ञात हो, वह ऐसा प्रमेय पदार्थ नहीं है । अन्य जीव रागरहित स्वसंवेदनज्ञान द्वारा आत्मा को जाने तो वह ज्ञात हो सकता है। बोल ५. स्वयं अन्य आत्मा को केवल अनुमान से जाने, स्वयं का ऐसा स्वभाव नहीं है, वह स्वसंवेदन से जान सकता है। बोल ६. आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है। परपदार्थ की अपेक्षारहित, इन्द्रिय तथा मन के आलंबनरहित, स्वयं स्वयं को प्रत्यक्ष जाने ऐसा उसका ज्ञातास्वभाव है। बोल ७. छह बोलों में द्रव्य का कथन किया है। सातवें बोल से ज्ञान उपयोग का कथन करते हैं। उपयोग भी ज्ञेय है। उस ज्ञेय का स्वभाव कैसा है, वह कहते हैं • उपयोग को पर का आलंबन नहीं हो सकता है, इसप्रकार सातवें बोल में कहा है; उसे बाहर से लाया नहीं जाता है, ऐसा आठवें बोल १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ- २३४ २. वही, पृष्ठ- २३५ - गाथा - १७२ ३२१ में कहा है और उसे कोई हरण नहीं कर सकता है - ऐसा नवमें बोल में कहा है। ज्ञेयों का आलंबन लेना ज्ञान का कार्य नहीं है, बाहर से वृद्धि को प्राप्त होना ज्ञान का कार्य नहीं है और किसी के द्वारा हीन हो जाय - ऐसा भी वह ज्ञान नहीं है। जिसे लिंग में अर्थात् उपयोग नामक लक्षण में ग्रहण अर्थात् सूर्य की भाँति उपराग (मलिनता, विकार) नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा शुद्धोपयोग-स्वभावी है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। द्रव्य, गुण तो अनादि अनंत शुद्ध हैं; परन्तु उपयोग में भी मलिनता नहीं है, ऐसा इस बोल में कहा है। चन्द्र कलंकित कहलाता है; परन्तु सूर्य में कोई धब्बा नहीं है। जिसप्रकार सूर्य में किसी भी प्रकार की मलिनता नहीं है; उसीप्रकार उपयोग भी सूर्य की भाँति कलंकरहित है। जिसप्रकार द्रव्य शुद्ध है, गुण शुद्ध है; उसीप्रकार ज्ञान की पर्याय भी शुद्ध है - ऐसा कहा है। अपना ज्ञाता दृष्टा स्वभाव शुद्ध है, उसमें जो पर्याय एकाकार होती है; यहाँ उस पर्याय को ही उपयोग कहा है और शुद्धोपयोगस्वभावी आत्मा को ही आत्मा कहा है। लिंग द्वारा अर्थात् उपयोग नामक लक्षण द्वारा ग्रहण अर्थात् पौद्गलिक कर्म का ग्रहण जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा द्रव्यकर्म से असंयुक्त (असंबद्ध) है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। उपयोग द्रव्यकर्म को ग्रहण ही नहीं करता है और द्रव्यकर्म के आने में निमित्त भी नहीं होता है ऐसा यहाँ कहना है। आत्मा द्रव्य है और उपयोग उसकी पर्याय है अथवा आत्मा लक्ष्य है और उपयोग उसका लक्षण है। लक्षण के बिना लक्ष्य नहीं हो सकता है और लक्ष्य के बिना लक्षण नहीं हो सकता है। आत्मा पहिचानने योग्य १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ- २४२ ३. वही, पृष्ठ- २४३ २. वही, पृष्ठ- २४२-२४३ ४. वही, पृष्ठ- २४४
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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