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________________ ३१४ प्रवचनसार अनुशीलन अर्थावबोध सामान्य जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है। इसप्रकार द्रव्य से नहीं आलिंगित शुद्धपर्याय है - ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा का भाव स्पष्ट करते हुए अलिंगग्रहण पद को छोड़कर शेष पदों का अर्थ तो तत्त्वप्रदीपिका के समान ही करते हैं; पर अलिंगग्रहण का अर्थ करते समय अलिंगग्रहण के अनेक अर्थ करते हुए भी तत्त्वप्रदीपिका के समान २० अर्थ नहीं करते । वेलिंग शब्द के मुख्यरूप से तीन अर्थ करते हैं - १. इन्द्रियाँ २. अनुमान और ३. चिह्न । आत्मा न तो मात्र इन्द्रियों द्वारा पर को जानता है और न पर से इन्द्रियों द्वारा जाना जाता है; इसलिए अलिंगग्रहण है अर्थात् अतीन्द्रियज्ञान द्वारा जानता है और अतीन्द्रियज्ञान द्वारा ही जाना जाता है। इसीप्रकार आत्मा न तो अनुमान द्वारा पर को जानता है और न पर के द्वारा अनुमान से जाना जाता है; इसलिए अलिंगग्रहण है। अतीन्द्रिय ज्ञानमय होने से अतीन्द्रियज्ञान द्वारा ही जानता है और उसी के द्वारा जाना जाता है। आत्मा न तो किन्हीं चिन्हों द्वारा जानता है और न किन्हीं चिन्हों द्वारा जाना जाता है; अतः अलिंगग्रहण है। अतीन्द्रिय ज्ञानमय होने से उसे चिन्हों द्वारा जानने और चिन्हों द्वारा ही जाने जाने (जानने में आने) की आवश्यकता नहीं है। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा का भाव १ मनहरण, १ दोहा और १० चौपाइयों के माध्यम से समझाते हैं; पर वे भी २० अर्थों को पूरी तरह नहीं समझाते, कुछ अर्थों को ही समझाते हैं। उनका कथन इसप्रकार है - ( मनहरण कवित्त ) अहो भव्यजीव तुम आतमा को ऐसो जानो, जाके रस रूप गंध फास नाहिं पाइये । शब्द परजाय सों रहित नित राजत है, अलिंगग्रहन निराकार दरसाइये ।। गाथा - १७२ चेतना सुभाव ही मैं राजै तिहूँकाल सदा, आनंद को कंद जगवंद वृन्द ध्याइये । भेदज्ञान नैन तैं निहारिये जतन ही सों, ३१५ ताके अनुभव रस ही में झर लाइये ।। ५६ ।। हे भव्यजीवो ! तुम आत्मा को इसप्रकार जानो कि उसमें पुद्गल के रूप, रस, गंध और स्पर्श गुण तथा शब्द पर्यायें नहीं हैं और वह उन पर्यायों के बिना ही शोभायमान है, अलिंगग्रहण है, निराकार है और तीनों काल चेतना स्वभाव से ही शोभायमान हो रहा है। कविवर वृन्दावनदासजी कहते हैं कि ऐसे आनन्द के कंद, जगत से वंदनीय भगवान आत्मा को भेदज्ञान की आँखों से बड़े ही जतन से निहारिये, उसका ही ध्यान कीजिए और उसके अनुभवरस में ही सराबोर हो जाइये । (दोहा) शब्द अलिंगग्गहन गुरु, लिख्यौ जु गाथामांहि । कछुक अरथ तसु लिखत हों, जुगतागम की छांहि ।।५७ ।। गुरुदेव ने गाथा में अलिंगग्रहण शब्द लिखा है । युक्ति और आगम के अनुसार उसके कुछ अर्थों को लिखता हूँ । (चौपाई ) चिह्न सुपुद्गल के हैं जिते । फरस रूप रस गंध जु तिते । तिन करि तासु लखिय नहिं चिह्न । याहूतैं सु अलिंगग्गहन ।। ५८ ।। अथवा तीन लिंग जगमाहिं । नारि नपुंसक नर ठहराहिं । ताहूकर न लखिय तसु चिह्न । याहूतैं सु अलिंगग्गहन ।। ५९ ।। अथवा लिंग जु इंद्रिय पंच। ताहूकरि न लखिय तिहि रंच । अतिइन्द्रियकरि जानन सहन । याहूतैं सु अलिंगग्गहन || ६० ।। अथवा इन्द्रियजनित जु ज्ञान । ताकरि है न प्रतच्छ प्रमान । नहिं है आतम को यह चिह्न । याहूतैं सु अलिंगग्गहन । । ६१ । । अथवा लिंग नाम यह जुप्त। लच्छन प्रगट लच्छ जसु गुप्त । धूम अग्नि जिमि तिमि नहिं चिह्न । याहूतैं सु अलिंगग्गहन ।। ६२ ।।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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