________________
गाथा-१५४
२६०
प्रवचनसार अनुशीलन पर्याय - यहत्रयात्मकत्व तथा पूर्व और उत्तर व्यतिरेक को स्पर्श करनेवाले अचेतनत्वरूप ध्रौव्य और अचेतनत्व के उत्तर तथा पूर्व के व्यतिरेकरूप उत्पाद और व्यय - यह त्रयात्मक स्वरूपास्तित्व स्वभावी अन्य अचेतन पदार्थ अन्य हैं। इसलिए मुझे मोह नहीं है, स्वपर का विभाग है।" ___ आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका टीका का अनुकरण करते हैं।
कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा को १ छन्द में ही अत्यन्त मार्मिक ढंग से प्रस्तुत कर देते हैं। वह छन्द मूलत: इसप्रकार है -
(दुमिला) उपयोगसरूप चिदातम सो, उपयोग दुधा छबि छाजत है। नित जानन देखन भेद लिये, सो शुभाशुभ होय विराजत है।। तिनही करि कर्मप्रबंध बँध, इमि श्री जिनकी धुनि गाजत है। जब आपमें आपुहि राजत है, तब श्योपुर नौबत बाजत है ।।२१।।
उपयोगस्वभावी आत्मा का उपयोग दो प्रकार का कहा गया है। एक ज्ञानोपयोग और दूसरा दर्शनोपयोग। इस उपयोग के शुभोपयोग और अशुभोपयोग - ऐसे भेद भी किये जाते हैं। इन शुभाशुभ उपयोग के कारण कर्म बंधते हैं । इसप्रकार की गर्जना अरिहंत भगवान की दिव्यध्वनि में होती है। इसप्रकार जब यह बात हमारे अंतरंग में आती है, सुशोभित होती है; तब मुक्तिपुरी की नौबत बजती है, मुक्तिपुरी के नगाड़े बजते हैं। पण्डित देवीदासजी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
(सवैया इकतीसा) कह्यौ जैसौ पूरव ही दरव को स्वरूपा सु
असतित्त्व ताहि लिये लछिन सुजानें हैं। जीव निरजीव जे पदारथ उभै प्रकार
भेदग्यान दिष्टि सौं जुदे जुदे सुभानें हैं ।। उतपत्य नास ध्रौव्य द्रव्य गुन परजाय
ये ही तीनि भावनि समेत सदा मानें हैं।
सोई भेदग्यानी विर्षे दरव अचेतनि के
हिये समदिष्टि सौंन मोह भाव आ. हैं ।।१०९।। जो भेदज्ञानी जीव पहले कहे हुए द्रव्य के स्वरूपास्तित्व के आधार पर जीव और अजीव - दोनों प्रकार के द्रव्यों के भेदज्ञान की दृष्टि से भिन्न-भिन्न लक्षणों को जानता है और उक्त द्रव्यों को उत्पाद-व्ययध्रौव्य और द्रव्य-गुण-पर्याय - इन भावों सहित सदा मानता है; वह भेदज्ञानी जीव अजीव द्रव्यों में समदृष्टि रखते हैं, उनसे भेदभाव नहीं रखते।
स्वामीजी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“प्रत्येक द्रव्य का स्वलक्षणभूत स्वरूप-अस्तित्व प्रत्येक द्रव्य को निश्चित करता है। आत्मा का स्वरूप-अस्तित्व आत्मा को निश्चित करता है और जड़ का स्वरूप-अस्तित्व जड़ को निश्चित करता है।'
जीवों को स्वरूप-अस्तित्व से प्रत्येक ज्ञेय को भिन्न-भिन्न जानकर यथार्थ निर्णय करना चाहिए। आत्मा सदा ही अपने द्रव्य-गुण पर्याय में रहता है, वह शरीर के द्रव्य-गुण-पर्यायों को कभी स्पर्श भी नहीं करता। छद्मस्थ जीव प्रदेश इत्यादि को भले ही प्रत्यक्षपने न जान सके; परन्तु परोक्षज्ञानपूर्वक केवली भगवान के जैसी ही प्रतीति कर सकता है। आत्मा प्रतिक्षण शरीरादि पदार्थों से जुदा है - ऐसा भेदज्ञान कराते हैं; इसलिए स्व-पर के विभाग की परिपूर्णता के लिए पर्याय-पर्याय में स्वरूपअस्तित्व को ख्याल में लेना चाहिए।
प्रत्येक आत्मा और परमाणु भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। कोई किसी का कर्ता नहीं है। आत्मा मात्र ज्ञाता-दृष्टास्वरूप पदार्थ है। प्रत्येक पदार्थ को उसके स्वरूप-अस्तित्व से भिन्न जानने से स्व-पर का भेद विज्ञान होता है। स्वरूप-अस्तित्ववाला स्वभाव द्रव्य-गुण-पर्यायपने तथा ध्रौव्यउत्पाद-व्ययपने इन तीन स्वरूप है।
देखो! धर्मी जीव अन्यत्व भावना भाता है। वह मानता है कि मेरा १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-१२९ २. वही, पृष्ठ-१३० ३. वही, पृष्ठ-१३०-३१