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________________ गाथा-१५२-१५३ प्रवचनसार गाथा १५२-१५३ विगत गाथाओं में यह बताया था कि इन्द्रियादि प्राणों रूप शरीरादि के संयोग का अन्तरंग कारण इनके प्रति एकत्व-ममत्व का होना है और अब इन गाथाओं में व्यवहारजीवत्व से आत्मा की अत्यन्त विभक्तता (भिन्नता) बताने के लिए देव-मनुष्यादि गतिरूप पर्यायों का स्वरूप एवं भेद बताते हैं। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - अत्थित्तणिच्छिदस्स हि अत्थस्सत्थंतरम्हि संभूदो। अत्थो पजाओ सो संठाणादिप्पभेदेहिं ।।१५२।। णरणारयतिरियसुरा संठाणादीहिं अण्णहा जादा। पज्जाया जीवाणं उदयादिहिं णामकम्मस्स ।।१५३।। (हरिगीत ) अस्तित्व निश्चित अर्थ की अन्य अर्थ के संयोग से। जो अर्थ वह पर्याय जो संस्थान आदिक भेदमय ।।१५२।। तिर्यंच मानव देव नारक नाम नामक कर्म के। उदय से पर्याय होवें अन्य-अन्य प्रकार कीं।।१५३।। अस्तित्व से निश्चित अर्थ (द्रव्य) का अन्य अर्थ (द्रव्य) में उत्पन्न जो अर्थ (भाव) वह पर्याय है; जो कि संस्थानादि भेदों सहित होती है। मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देव - ये नामकर्म के उदयादिक के कारण होनेवाली जीवों की पर्यायें हैं; जो कि संस्थानों द्वारा अन्यअन्यप्रकार की होती हैं। इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है "स्वलक्षणभूत स्वरूप-अस्तित्व से निश्चित एक अर्थ (द्रव्य) का स्वलक्षणभूत स्वरूप-अस्तित्व से ही निश्चित दूसरे अर्थ में विशिष्टरूप से उत्पन्न होता हुआ जो अर्थ (भाव) है; वह अनेकद्रव्यात्मक पर्याय है। जिसप्रकार एक पुद्गल की अन्य पुद्गल के साथ मिलकर अनेकद्रव्यात्मक समानजातीय द्रव्यपर्याय देखी जाती है; उसीप्रकार जीव की पुद्गलों में संस्थानादि से विशिष्ट उत्पन्न होती हुई अनेकद्रव्यात्मक असमानजातीय द्रव्यपर्याय भी अनुभव में अवश्य आती है। __ ऐसी पर्याय का होना असंभव नहीं है, न्याययुक्त ही है; क्योंकि जो केवल जीव की व्यतिरेकमात्र है - ऐसी अस्खलित एकद्रव्यपर्याय ही अनेकद्रव्यों के संयोगात्मक रूप से भीतर अवभासित होती है। नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव - ये जीवों की पर्यायें हैं । वे नामकर्मरूप पुद्गल के विपाक के कारण अनेक द्रव्यों की संयोगात्मक हैं; इसलिए जिसप्रकार तुष की अग्नि और अंगार आदि अग्नि की पर्यायें चूरा और डली इत्यादि आकारों से अन्य-अन्यप्रकार की होती हैं; उसीप्रकार जीव की वे नारकादि पर्यायें संस्थानादिक के द्वारा अन्य-अन्य प्रकार की होती हैं।" आचार्य जयसेन ने भी तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं के भाव को तत्त्वप्रदीपिका के अनुसार ही स्पष्ट किया है। इन गाथाओं का भाव कविवर वृन्दावनदासजी ने २ मनहरण और १ मत्तगयन्द - इसप्रकार कुल ३ छन्दों में प्रस्तुत किया है; जो इसप्रकार है - (मनहरण कवित्त) संसार अवस्थामाहिंजीवनि केनिश्चैकरि, पुग्गलविपाकी नामकर्म उदै आये तैं। नर नारकौर तिरजंच देवगति विर्षे, जथाजोग देह बनै परजाय पाये तैं ।। संसथान संहनन आदि बहु भेद जाके, पुग्गलदरवकरि रचित बताये तैं। जैसें एक आगि है अनेक रूप ईंधन तें, नानाकार तैसे तहाँ चेतन सुभाये तैं ॥१८॥ निश्चय से जीवों के संसार अवस्था में पुद्गलविपाकी नामकर्म के उदय से नर, नारक, तिर्यंच और देवगति में पर्यायानुसार यथायोग्य देह
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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