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प्रवचनसार अनुशीलन तीरक-परचै पाँच में, निजप्रदेश सरवंग।
निजाधीन धारै सदा, जथाजोग बहुरंग ।।९५।। जिन द्रव्यों के बहुत प्रदेश होते हैं, वे द्रव्य तिर्यक्प्रचयी होते हैं। काल को छोड़कर शेष पाँचों द्रव्य निर्धान्तरूप से तिर्यक्प्रचयी हैं।
कालाणु में मिलन की शक्ति नहीं है; इसलिए तिर्यक्प्रचय में कालाणु को शामिल नहीं किया गया है।
समयों के समुदाय का ऊर्ध्वप्रचय नाम है। यह ऊर्ध्वप्रचय सभी द्रव्यों में होता है।
ऊर्ध्वप्रचय कालद्रव्य के निमित्त से होता है; क्योंकि सब द्रव्यों के परिणमन में एकमात्र वही निमित्त है।
कालद्रव्य को छोड़कर शेष द्रव्यों का ऊर्ध्वप्रचय कालद्रव्य के निमित्त होता है; पर कालद्रव्य में ऊर्ध्वप्रचय स्वयं से ही होता है।
पाँच द्रव्यों में प्राप्त होनेवाला तिर्यक्प्रचय का आधार वे ही द्रव्य हैं। यथायोग्य अनेकप्रकार का तिर्यक्प्रचय सभी पाँच द्रव्यों में स्वयं से ही होता है।
पण्डित देवीदासजी यहाँ एक नया प्रयोग करते हैं। एक ही छन्द में १४१, १४२ एवं १४३ गाथा के भाव को समेट लेते हैं; जो इसप्रकार है -
(छप्पय) कालानू जिहि रूप दरव इक है सु काल ही। समय नाम परजाय विर्षे जानौं सु हाल ही।। उपजै अरु विनसैं सुबहुरि थिर रूप बखानौं। तीनि भाव तिन्हि की प्रवर्ति निश्चैकरि जानौं।। अस्तित्व यह सुइहि काल कौ काल सरवदा रहेगी।
अपनौं सुभाव निज छोड़कर अवर सुभावन गहेगी ।।९५।। कालाणु ही कालद्रव्य है, समय कालाणु द्रव्य की पर्याय है । कालाणु द्रव्य समयरूप पर्याय के रूप में उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और स्थिर भी रहता है। उस परमाणुद्रव्य की उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप प्रवृत्ति निश्चित ही
गाथा-१४१
२२३ होती है; क्योंकि वह अस्तित्व सम्पन्न द्रव्य है । ऐसा कालद्रव्य सदाकाल रहनेवाला द्रव्य है और निजस्वभाव को छोड़कर वह दूसरे के स्वभाव को कभी भी ग्रहण नहीं करेगा।
इस गाथा के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“प्रचय का अर्थ समूह होता है। तिर्यक्प्रचय क्षेत्र अपेक्षा से प्रदेशों का समूह है और ऊर्ध्वप्रचय काल अपेक्षित समय विशिष्ट पर्यायों का समूह है। आकाश, धर्म, अधर्म, जीव और पुद्गल अनेक प्रदेशों वाले होने से उनके तिर्यक्प्रचय है; परन्तु काल को प्रदेशों का समूह नहीं है; क्योंकि वह शक्ति अपेक्षा से एक प्रदेशी है और व्यक्ति अपेक्षा से भी एक प्रदेशी ही है। ऊर्ध्वप्रचय तो छहों द्रव्यों को होता ही है; क्योंकि द्रव्यों की परिणति/अवस्था भूत-वर्तमान और भविष्य - ऐसे तीनोंकाल में रहती है। किसी काल में किसी द्रव्य की अवस्था न हो - ऐसा नहीं होता । इसलिए वे अंशों सहित हैं।"
इसप्रकार इस गाथा में तिर्यक्प्रचय और ऊर्ध्वप्रचय का स्वरूप स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि ऊर्ध्वप्रचय तो पर्यायों के समूहरूप होने से सभी द्रव्यों में होता है; पर तिर्यक्प्रचय प्रदेशों के समूहरूप होने से कालद्रव्य में नहीं है; क्योंकि वह एकप्रदेशी अर्थात् अप्रदेशी है। शेष पाँच द्रव्यों में तिर्यक्प्रचय और ऊर्ध्वप्रचय दोनों ही हैं।
ऊर्ध्वप्रचय की अपेक्षा प्रत्येक द्रव्य अनादि-अनन्त है, त्रिकाली ध्रुव है और तिर्यक्प्रचय की अपेक्षा पाँच द्रव्य अस्तिकायरूप हैं। ___ काल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों के ऊर्ध्वप्रचय अर्थात् परिणमन में निमित्त कालद्रव्य है और अपने-अपने उपादान तो सभी द्रव्य स्वयं ही हैं। कालद्रव्य के परिणमन का उपादान भी कालद्रव्य है और निमित्त भी कालद्रव्य ही है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-७० २. वही, पृष्ठ-७०