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________________ गाथा-१३७-३८ २११ २१० प्रवचनसार अनुशीलन इसीप्रकार कविवर वृन्दावनदासजी ने भी उक्त बातों को ही छन्दोबद्ध कर दिया है। यद्यपि उन्होंने इन गाथाओं के भाव को व्यक्त करने के लिए २ मनहरण और १० दोहे - इसप्रकार १२ छन्द लिखे हैं और बढ़ी ही चतुराई से सभी बातों को स्पष्ट कर दिया है। फिर भी सभी छन्द देना संभव नहीं है । अत: वे सब मूलत: पठनीय हैं। पण्डित देवीदासजी भी इस गाथा के भाव को प्रस्तुत करने के लिए १ कवित्त, १ छप्पय और ४ दोहे - इसप्रकार ६ छन्दों का प्रयोग करते हैं, जो मूलत: पठनीय हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - "ज्ञेयों का जैसा स्वभाव है, वैसा जानना चाहिए। ज्ञेयों को जानने से इन्कार करनेवाला अपने ज्ञानस्वभाव से ही इन्कार करता है। इसलिए बाह्य से मंदकषाय होने पर भी, अज्ञान के कारण संसार में रहता है।' जब ज्ञेयों के स्वभाव की बात कान में पड़ती है, तब नकार न लाकर अपने ज्ञानस्वभाव की महिमा लाना चाहिए। इसप्रकार अप्रदेशी और सप्रदेशी द्रव्य भी ज्ञेय हैं और उन ज्ञेयों का ज्यों का त्यों ज्ञान करना सम्यग्ज्ञान का कारण है।” देखो, यहाँ स्वामीजी सभी स्व-पर ज्ञेयों को भलीभाँति जानने की प्रेरणा दे रहे हैं; साथ में यह भी कह रहे हैं कि ज्ञेयों को जानने से इन्कार करनेवाला संसार में भटकता है। उक्त सम्पूर्ण कथन का संक्षिप्त सार यह है कि लोकाकाश के असंख्यप्रदेश हैं। एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है। उस कालाणु में स्निग्धता-रूक्षता नहीं होने से वे मिलते नहीं हैं; किन्तु रत्नराशि की तरह पृथक्-पृथक् ही रहते हैं। उसका कारण यह है कि कालाणु में वैसी ही योग्यता है। जब पुद्गल परमाणु मंदगति से आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाता है, तब उस प्रदेश में रहा हुआ कालाणु उसको निमित्त होता है। यहाँ गति की बात नहीं है; किन्तु गति करने में जो समय लगा उससे काल की पर्याय निश्चित होती है और पर्याय से कालाणुद्रव्य निश्चित होता है। इसप्रकार प्रत्येक कालाणु पुद्गल के परमाणु को एक प्रदेश तक जाने में निमित्तरूप से वर्तता है। अधिक प्रदेशों तक जाने में एक कालाणु निमित्तरूप नहीं वर्तता, दूसरे प्रदेश में दूसरा और तीसरे प्रदेश में तीसरा कालाणु निमित्तरूप वर्तता है। इससे स्पष्ट होता है कि कालद्रव्य पर्याय से भी एक ही प्रदेशी है, अनेक प्रदेशी नहीं। दूसरी मुख्य बात यह है कि धर्म, अधर्म और लोकाकाश तो सदा स्थित हैं और असंख्यप्रदेशों में फैले हुए हैं, पर जीवद्रव्य तो किसी निश्चित एक आकार में सदा नहीं रहता है, उसके आकार तो बदलते रहते हैं - ऐसी स्थिति में उसे असंख्यप्रदेशी कैसे माना जा सकता है ? ऐसा प्रश्न होने पर यहाँ सूखे और गीले चमड़े का उदाहरण देकर समझाया है। जिसप्रकार चमड़ा गीला होता है तो फैल जाता है और सूखने पर सिकुड़ जाता है; फिर भी दोनों ही स्थितियों में उसके प्रदेश तो समान ही रहते हैं, घटते-बढ़ते नहीं; उसीप्रकार छोटे-बड़े शरीरों में रहते समय आत्मा के प्रदेश घटते-बढ़ते नहीं, असंख्यात ही रहते हैं। साथ में यह भी कहा है कि यह बात अनुभव से सिद्ध है; क्योंकि हम सब स्वयं देखते हैं कि बालक के छोटे से शरीर में रहनेवाला आत्मा जवानी आने पर फैल जाता है; क्योंकि संसार अवस्था में आत्मा के प्रदेशों में संकोचविस्तार होता ही रहता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-४९ २. वही, पृष्ठ-४९ ३. वही, पृष्ठ-५१
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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