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गाथा-१३६
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प्रवचनसार अनुशीलन जीव और पुद्गल तो युक्ति से ही लोक में है; क्योंकि लोक छह द्रव्यों का समवायस्वरूप ही है।
इसमें यह बात विशेष जानना चाहिए कि प्रदेशों का संकोचविस्तार होना जीव का धर्म है और बंध के हेतुभूत स्निग्ध-रूक्ष गुण पुद्गल के धर्म होने से जीव और पुद्गल का समस्त लोक में या उसके एकदेश में रहने का नियम नहीं है। काल, जीव और पुद्गल एक द्रव्य की अपेक्षा से लोक के एकदेश में रहते हैं और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा से अंजन से भरी हुई डिब्बी के न्यायानुसार समस्त लोक में ही हैं।” - यद्यपि आचार्य जयसेन इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं; तथापि अन्त में इसी बात को नयों के माध्यम से स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि भाव यह है कि जिसप्रकार सिद्ध भगवान यद्यपि निश्चय से लोकाकाशप्रमाण अपने शुद्ध असंख्यात प्रदेशों में और केवलज्ञानादि गुणों के आधारभूत अपने भावों में रहते हैं; तथापि व्यवहार से सिद्धशिला में रहते हैं।
उसीप्रकार सभी पदार्थ यद्यपि निश्चय से अपने-अपने स्वरूप में रहते हैं; तथापि व्यवहार से लोकाकाश में रहते हैं। जीव अनन्त हैं और पुद्गल उनसे भी अनन्तगुणे हैं; फिर भी एक दीपक के प्रकाश में अनेक दीपकों के प्रकाश के समान विशिष्ट अवगाहन शक्ति के कारण असंख्यात प्रदेशी एक लोक में भी इन सभी का एकसाथ रहना विरोध को प्राप्त नहीं होता।
कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव १ मनहरण और १ दोहा - इसप्रकार २ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार हैं -
(मनहरण) लोक औअलोकमें आकाशहीदरव और,
धर्माधर्म जहाँ लगु पूरित सो लोक है। ताही विर्षे जीवपुद्गल की प्रतीत करो,
काल की असंखजुदी अनुहू को थोक है।।
समयादि परजाय जीव पुद्गल ही के,
परिनामनि सों परगटत सुतोक है। काजर की रेनुकरि भरी कजरौटी जथा,
तथा वृन्द लोक में विराजैदर्वथोक है।।५३।। आकाशद्रव्य लोक और अलोक में रहता है और धर्म-अधर्मद्रव्य जहाँ तक पाये जाते हैं; वह लोक है। उस लोक में जीव, पुद्गल रहते हैं - यह विश्वास करो। इसी लोक में असंख्य कालाणुओं का थोक रहता है। इस काल की समयादि पर्यायें जीव और पुद्गल के परिणमन से प्रगट होती हैं। जिसप्रकार काजल की धूल से भरी डिब्बी में काजल सर्वत्र व्याप्त रहता है; उसीप्रकार लोक में द्रव्यों का समूह रहता है।
(दोहा) धर्माधर्म दरव दोऊगति थिति के सहकार ।
ये दोनों जहँ लगु सोई लोकसीम निरधार ।।५४।। जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति में सहकारी धर्म-अधर्मद्रव्य जहाँ तक हैं; वही लोक की सीमा है। ___पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को इसीप्रकार प्रस्तुत कर देते हैं।
इस गाथा में मात्र यही बात कही गई है कि वैसे तो निश्चय से प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने गुण-पर्यायों में रहता है; तथापि व्यवहार से आकाश लोकालोक में और शेष द्रव्य लोक में रहते हैं।
आगम का विरोधी अध्यात्मी नहीं हो सकता, अध्यात्म का विरोधी आगमी नहीं हो सकता । जो आगम का मर्म नहीं जानता, वह अध्यात्म का मर्म भी नहीं जान सकता और जो अध्यात्म का मर्म नहीं जानता, वह आगम का मर्म भी नहीं जान सकता । सम्यग्ज्ञानी आगमी भी है और अध्यात्मी भी तथा मिथ्याज्ञानी आगमी भी नहीं होता और अध्यात्मी भी नहीं होता।
- परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-१७७