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प्रवचनसार अनुशीलन तेरा अनंत को जानने का अपरिमित स्वभाव है। अधिक जानने से ज्ञान उद्धत नहीं होता; अपितु प्रशम के लक्ष से मन को गंभीर करके ज्ञेयों को जानने से वीतरागदशा प्रगट होती है।
समस्त ज्ञेयों की ओर जानने का झुकाव करता है, इसलिए राग नहीं होता; परन्तु राग की भूमिका है, इसलिए राग होता है। ___केवली भगवान अनंत पदार्थों को अनंत भेद-प्रभेद सहित जानते हैं, उनको राग बिलकुल नहीं होता। छह द्रव्य तेरे ज्ञेय हैं, उतना जानने का तेरा ज्ञान है।
यदि तू छह द्रव्यों के ज्ञान से कम ज्ञान करेगा; तो तूने ज्ञानगुण को नहीं माना है और इसकारण जीव को भी तूने नहीं माना है।
तेरा स्वभाव परपदार्थ की पर्याय को बदलने का नहीं है तथा भविष्यकाल की पर्याय को वर्तमान में लाऊँ - ऐसा विकल्प करना भी तेरा स्वभाव नहीं है। तेरा स्वभाव तो ज्ञाता-दृष्टा है।
यह ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार है। जैसे ज्ञेय हैं, वैसे ही ज्ञेयों को जानना तेरा कर्तव्य है - यही धर्म और शान्ति का कारण है।"
जो लोग पर को जानने को बंध का कारण मानते हैं या बिना अपेक्षा बताये यह कहते हैं कि आत्मा पर को जानता ही नहीं है; उन्हें स्वामीजी के अत्यन्त स्पष्ट उक्त कथनों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। . १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-२९
आगम और अध्यात्मशैली में मूलभूत अन्तर यह है कि अध्यात्मशैली की विषयवस्तु आत्मा, आत्मा की विकारी-अविकारी पर्यायें और आत्मा से परवस्तुओं के संबंधमात्र है। आगमशैली की विषयवस्तु छहों प्रकार के समस्त द्रव्य, उनकी पर्यायें और उनके परस्पर के संबंध आदि स्थितियाँ हैं। इसी बात को सूत्ररूप में कहें तो इसप्रकार कह सकते हैं कि आगम का प्रतिपाद्य सन्मात्र वस्तु है और अध्यात्म का प्रतिपाद्य चिन्मात्र वस्तु है।
- परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-१८०
प्रवचनसार गाथा १३५ द्रव्यविशेषाधिकार में अबतक द्रव्यों के जीव-अजीव, लोकअलोक, सक्रिय-निष्क्रिय, मूर्त-अमूर्तरूप वर्गीकरणों की चर्चा हुई; अब इस गाथा से सप्रदेशी-अप्रदेशी अर्थात् अस्तिकाय और नास्तिकाय भेदों की चर्चा आरंभ करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है - जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो य आगासं। सपदेसेहिं असंखा णत्थि पदेस त्ति कालस्स ।।१३५।।
(हरिगीत ) हैं बहुप्रदेशी जीव, पुद्गल गगन धर्माधर्म सब ।
है अप्रदेशी काल जिनवरदेव के हैं ये वचन ।।१३५।। जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म और आकाश अपने प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यात अर्थात् अनेक हैं; पर काल के प्रदेश नहीं हैं।
उक्त गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश - ये द्रव्य अनेक प्रदेशवाले होने से प्रदेशवान अर्थात् सप्रदेशी हैं और कालाणुद्रव्य एकप्रदेशी होने से अप्रदेशी है।
अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं -
संकोचविस्तार के होने पर भी जीव लोकाकाशतुल्य असंख्य प्रदेशों को नहीं छोड़ता; इसलिए प्रदेशवान है, सप्रदेशी है।
यद्यपि पुद्गल द्रव्यापेक्षा प्रदेशमात्र (एकप्रदेशी) होने से अप्रदेशी है; तथापि दो प्रदेशों से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनंतप्रदेशोंवाली पर्यायों की अपेक्षा अनिश्चित प्रदेशवाला होने से प्रदेशवान (सप्रदेशी) है।