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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : सुखाधिकार
अथेन्द्रियज्ञानं न प्रत्यक्षं भवतीति निश्चिनोति । अथ परोक्षप्रत्यक्षलक्षणमुपलक्षयतिपरदव्वं ते अक्खा णेव सहावो त्ति अप्पणो भणिदा । उवलद्धं तेहि कथं पच्चक्खं अप्पणो होदि । । ५७ ।। जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खं ति भणिदमट्ठेसु । जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं ।। ५८ ।।
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परद्रव्यं तान्यक्षाणि नैव स्वभाव इत्यात्मनो भणितानि । उपलब्धं तैः कथं प्रत्यक्षमात्मनो भवति ।। ५७ ।। यत्परतो विज्ञानं तत्तु परोक्षमिति भणितमर्थेषु ।
यदि केवलेन ज्ञातं भवति हि जीवेन प्रत्यक्षम् ।।५८ ।।
आत्मानमेव केवलं प्रति नियतं किल प्रत्यक्षं । इदं तु व्यक्तिरिक्तास्तित्वयोगितया परद्रव्यतामुपगतैरात्मन: स्वभावतां मनागप्यसंस्पृशद्भिरिन्द्रियैरुपलभ्योपजन्यमानं न नामात्मन: प्रत्यक्षं भवितुमर्हति।।५७।।
यत्तु खलु परद्रव्यभूतादन्तःकरणादिन्द्रियात्परोपदेशादुपलब्धेः संस्कारादालोकादेर्वा गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत )
इन्द्रियाँ परद्रव्य उनको आत्मस्वभाव नहीं कहा।
अर जो उन्हीं से ज्ञात वह प्रत्यक्ष कैसे हो सके ? ॥५७॥
जो दूसरों से ज्ञात हो बस वह परोक्ष कहा गया । केवल स्वयं से ज्ञात जो वह ज्ञान ही प्रत्यक्ष है ॥५८॥
वे इन्द्रियाँ परद्रव्य हैं। उन्हें आत्मस्वभावरूप नहीं कहा है। उनके द्वारा ज्ञात ज्ञान प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ?
पर के द्वारा होनेवाला जो पदार्थों का ज्ञान है, वह परोक्ष कहा गया है। जो मात्र जीव के द्वारा ही जाना जाय, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं।
इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"वस्तुत: वह ज्ञान ही प्रत्यक्षज्ञान है, जो केवल आत्मा के प्रति नियत हो । यह इन्द्रियज्ञान तो आत्मस्वभाव का किंचित् भी स्पर्श नहीं करनेवाली आत्मा से भिन्न अस्तित्ववाली परद्रव्यरूप इन्द्रियों द्वारा होता है; इसलिए यह इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता ।