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________________ सुखाधिकार ( गाथा ५३ से गाथा ६८ तक ) अथ ज्ञानादभिन्नस्य सौख्यस्य स्वरूपं प्रपञ्चयन् ज्ञानसौख्ययोः हेयोपादेयत्वं चिन्तयति - अत्थि अमुत्तं मुत्तं अदिंदियं इंदियं च अत्थेसु । णाणं च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं । । ५३ ।। अमूर्तं मूर्तमतीन्द्रियमैन्द्रियं चार्थेषु । ज्ञानं च तथा सौख्यं यत्तेषु परं च तत् ज्ञेयम् ।।५३|| अत्र ज्ञानं सौख्यं च मूर्तमिन्द्रियजं चैकमस्ति । इतरदमूर्तमतीन्द्रियं चास्ति । तत्र यदमूर्तमतीन्द्रियं च तत्प्रधानत्वादुपादेयत्वेन ज्ञातव्यम् । तत्राद्यं मूर्ताभि: क्षायोपशमिकीभिरुपयोगशक्तिभिस्तथाविधेभ्य इन्द्रियेभ्यः समुत्पद्यमानं परायत्तत्वात् कादाचित्कं, क्रमकृतप्रवृत्ति सप्रतिपक्षं सहानिवृद्धि च गौणमिति कृत्वा ज्ञानं च सौख्यं च हेयम् । मंगलाचरण (दोहा) इन्द्रिय सुख तो सुख नहीं भाषी श्री भगवान | अरे अतीन्द्रिय सुक्व ही सचमुच सुख की खान ॥ प्रवचनसार परमागम के प्रथम महाधिकार ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन के अन्तर्गत आनेवाले शुद्धोपयोगाधिकार एवं ज्ञानाधिकार की चर्चा के उपरान्त अब सुखाधिकार की चर्चा आरंभ करते हैं। प्रवचनसार की ५३वीं गाथा एवं सुखाधिकार की प्रथम गाथा में ज्ञान से अभिन्न सुख का स्वरूप बताते हुए ज्ञान तथा सुख की हेयोपादेयता बताते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है( हरिगीत ) मूर्त और अमूर्त इन्द्रिय अर अतीन्द्रिय ज्ञान - सुख । इनमें अमूर्त अतीन्द्रियी ही ज्ञान- सुख उपादेय हैं ॥५३॥ पदार्थों में प्रवृत्त ज्ञान अमूर्त व मूर्त तथा अतीन्द्रिय व ऐन्द्रिय होता है। इसीप्रकार सुख भी अमूर्त-मूर्त और अतीन्द्रिय-ऐन्द्रिय होता है । इनमें जो प्रधान हैं; वे उपादेय हैं। उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - " एक प्रकार के ज्ञान व सुख मूर्त व इन्द्रियज होते हैं और दूसरे प्रकार के ज्ञान व सुख अमूर्त व अतीन्द्रिय होते हैं। इनमें अमूर्त व अतीन्द्रिय ज्ञान व सुख प्रधान होने से उपादेय हैं। इसमें पहले (इन्द्रियजन्य) ज्ञान व सुख क्षायोपशमिक उपयोग शक्तियों से उस-उसप्रकार
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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