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प्रवचनसार
(आर्या) परमानन्दसुधारसपिपासितानां हिताय भव्यानाम् ।
क्रियते प्रकटिततत्त्वा प्रवचनसारस्य वृत्तिरियम् ।।३।। अथ खलु कश्चिदासन्नसंसारपारावारपारः समुन्मीलितसातिशयविवेकज्योतिरस्तमित
इस ज्ञानज्ञेयतत्त्वप्रबोधिनी हिन्दी टीका में आचार्य कुन्दकुन्द की मूल गाथाओं और उन पर लिखी गई आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका संस्कृत टीका को मुख्य आधार बनाया गया है। आवश्यकतानुसार आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका का भी उपयोग किया गया है।
प्रवचनसार की आचार्य अमृतचंद्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका के मंगलाचरण का पद्यानुवाद इसप्रकार है
(दोहा) स्वानुभूति से जो प्रगट सर्वव्यापि चिद्रूप। ज्ञान और आनन्दमय नमो परात्मस्वरूप॥१॥ महामोहतम को करे क्रीड़ा में निस्तेज। सब जग आलोकित करे अनेकान्तमय तेज ||२|| प्यासे परमानन्द के भव्यों के हित हेतु।
वृत्ति प्रवचनसार की करता हूँ भवसेतु ||३|| सर्वव्यापी होने पर भी मात्र एक चैतन्यरूप है स्वरूप जिसका और जो स्वानुभव से प्रसिद्ध होनेवाला है; उस ज्ञानानन्दस्वभावी उत्कृष्ट आत्मा को नमस्कार हो।
जोमहामोहरूपी अंधकारसमूह कोलीलामात्र में नष्ट करता है और जगत के स्वरूपको प्रकाशित करता है; वह अनेकान्तमय तेज सदा जयवंत वर्तता है।
परमानन्दरूपी अमृत के प्यासे भव्यजीवों के हित के लिए तत्त्व को प्रगट करनेवाली प्रवचनसार की यह टीका (वृत्ति) रची जा रही है।
इसप्रकार मंगलाचरण और टीका लिखने की प्रतिज्ञा करने के उपरान्त अब आचार्य अमृतचन्द्र आचार्य कुन्दकुन्द रचित प्रवचनसार के मंगलाचरण और प्रतिज्ञावाक्य संबंधी पाँच गाथाओं की उत्थानिका लिखते हैं; जिसका भाव इसप्रकार है -
“जिनके संसारसमुद्र का किनारा अति निकट है, जिन्हें सातिशय विवेकज्योति प्रगट हो गई है, जिनका एकान्तवादरूप समस्त अविद्या का अभिनिवेश (आग्रह) अस्त हो गया है;