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प्रवचनसार
अथेन्द्रियज्ञानस्यैव प्रलीनमनुत्पन्नं च ज्ञातुमशक्यमिति वितर्कयति । अथातीन्द्रियज्ञानस्य तु यद्यदुच्यते तत्तत्संभवतीति संभावयति -
अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुव्वेहिं जे विजाणंति । सिं परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं ॥ ४० ॥ अपदेसं सपदेसं मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं । पलयं गदं च जाणदि तं णाणमदिदियं भणियं । । ४१ ।। विजानन्ति । तेषां परोक्षभूतं ज्ञातुमशक्यमिति प्रज्ञप्तम् ।।४० ।। अप्रदेशं सप्रदेशं मूर्तममूर्तं च पर्ययमजातम् । प्रलयं गतं च जानाति तज्ज्ञानमतीन्द्रियं भणितम् ।।४१ ।।
अर्थमक्षनिपतितमीहापूर्वैर्ये
विगत गाथाओं में यह समझाया गया है कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान से सभी द्रव्यों की तीन काल संबंधी सभी पर्यायें एक साथ एक समय में जान ली जाती हैं। अब इन ४० व ४१वीं गाथा में इन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियज्ञान की तुलना करते हुए यह बता रहे हैं कि इन्द्रियज्ञान के लिए सभी पदार्थों की त्रिकालवर्ती सभी पर्यायों को जानना शक्य नहीं है; क्योंकि इन्द्रियज्ञान परोक्षज्ञान है; जबकि अतीन्द्रियज्ञान प्रत्यक्षज्ञान होने से मूर्त-अमूर्त, सप्रदेशी - अप्रदेशी सभी द्रव्यों की अजात और प्रलय को प्राप्त सभी पर्यायों को एक समय में एकसाथ जानता है । गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
जो इन्द्रियगोचर अर्थ को ईहादिपूर्वक जानते । वे परोक्ष पदार्थ को जाने नहीं जिनवर कहें ॥ ४० ॥
सप्रदेशी अप्रदेशी मूर्त और अमूर्त को । अनुत्पन्न विनष्ट को जाने अतीन्द्रिय ज्ञान ही ॥ ४१ ॥ जो इन्द्रियगोचर पदार्थों को ईहादि पूर्वक जानते हैं; उनके लिए परोक्षभूत पदार्थ का जानना अशक्य है - ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है ।
जो ज्ञान अप्रदेश को, सप्रदेश को, मूर्त को, अमूर्त को, अनुत्पन्न और नष्ट पर्यायों को जानता है; वह ज्ञान अतीन्द्रिय कहा गया है ।