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प्रवचनसार
___ अथातिवाहितानागतानामपि द्रव्यपर्यायाणांतादात्विकवत् पृथक्त्वेन ज्ञाने वृत्तिमुद्योतयति
तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं। वट्टन्ते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं ।।३७।।
तात्कालिका इव सर्वे सदसद्भता हि पर्यायास्तासाम्।
वर्तन्ते ते ज्ञाने विशेषतो द्रव्यजातीनाम् ।।३७।। सर्वासामेव हि द्रव्यजातीनां त्रिसमयावच्छिन्नात्मलाभभूमिकत्वेन क्रमप्रतपत्स्वरूपसंपदः
अपने आत्मा को छोड़कर अन्य सभी परपदार्थ अपने लिए मात्र ज्ञेय ही हैं; किन्तु अपना आत्मा स्वयं ज्ञायक है और ज्ञेय भी है। इसतरह 'स्व' में अर्थात् अपने आत्मा में ज्ञेय और ज्ञायक - ये दोनों विशेषताएँ हैं और पर-पदार्थ अपने लिए मात्र ज्ञेय ही हैं। यही कारण है कि स्व और पर - ज्ञेय के ऐसे दो भेद किए गए हैं।
तीसरी बात यह कही है कि भले ही ज्ञानपर्याय स्वयं से उत्पन्न न होती हो, पर वह पर के साथ-साथ स्वयं को जानती अवश्य है; क्योंकि वह स्व-परप्रकाशक है ।।३६।।
विगत गाथा में यह कहा गया है कि सभी द्रव्यों की भूतकाल में हो गईं; वर्तमान में हो रहीं और भविष्य में होनेवाली पर्यायें ज्ञेय हैं। उसी बात को आगे बढ़ाते हुए इस गाथा में कहते हैं कि सभीद्रव्योंकीअतीत और अनागत पर्यायें भीवर्तमान पर्याय के समान ही ज्ञान में विद्यमान हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) असद्भूत हों सद्भूत हों सब द्रव्य की पर्याय सब |
सद्ज्ञान में वर्तमानवत् ही हैं सदा वर्तमान सब ||३७|| उन जीवादि द्रव्यजातियों की समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक (वर्तमान) पर्यायों की भांति विशिष्टतापूर्वक ज्ञान में वर्तती हैं।
उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“जीवादि समस्त द्रव्यजातियों की पर्यायों की उत्पत्ति की मर्यादा तीनों काल की मर्यादा जितनी होने से, उनकी क्रमपूर्वक तपती हुई स्वरूपसंपदा वाली विद्यमानता और अविद्यमानताको प्राप्त जो जितनी पर्यायें हैं; वे सब तात्कालिक पर्यायों की भांति अत्यन्त