________________
५७२
प्रवचनसार
ज्ञान-ज्ञेयतत्त्वप्रबोधिनी हिन्दी टीकाकार के अन्तिम उद्गार
(कुण्डलिया) निज आतम ही ध्येय है निज आतम श्रद्धेय |
निज आतम ही ज्ञान है निज आतम ही ज्ञेय || निज आतम ही ज्ञेय-ध्येय-श्रद्धेय सभी कुछ। निज आतम ही मैं हूँ मेरा और नहीं कुछ। सुखमय मेरा अनेकान्तमय शुद्धातम ही। एकमात्र आराध्य साध्य बस निज आतम ही॥१॥
(दोहा) यह निचोड़ इस ग्रंथ का है अनंत सुखदाय | सुनो, गुनो, चिन्तन करो, तन्मय हो मन लाय ||२|| दो हजार अर आठ सन् तीस मार्च रविवार | जयपुर में पूरण हुई यह टीका सुखकार ||३||
स्वभाव पवित्र है, हुआ नहीं है। जो पवित्र होता है, उसके आश्रय से पवित्रता प्रगट नहीं होती। जो स्वयं स्वभाव से पवित्र है, जिसे पवित्र होने की आवश्यकता नहीं, जो सदा से ही पवित्र है; उसके आश्रय से ही पवित्रता प्रगट होती है। वही परमपवित्र होता है, वही पतित-पावन होता है; जिसके आश्रय में पवित्रता प्रगट होती है, पतितपना नष्ट होता है। त्रिकाली ध्रुवतत्त्व पवित्र हुआ नहीं है, वह अनादि से पवित्र ही है, उसके आश्रय से ही पर्याय में पवित्रता, पूर्ण पवित्रता प्रगट होती है। वह परमपदार्थ ही परमशुद्धनिश्चयनय का विषय है।
पवित्र पर्याय सोना है, पारस नहीं है । परमशुद्धनिश्चयनय का विषय त्रिकाली ध्रुव पारस है, जो सोना बनाता है, जिसके छूने मात्र से लोहा सोना बन जाता है। सोने को छूने से लोहा सोना नहीं बनता, पर पारस के छूने से वह सोना बन जाता है। पवित्र पर्याय के, पूर्ण पवित्र पर्याय के आश्रय से भी पर्याय में शुद्धता प्रगट नहीं होती। पर्याय में पवित्रता त्रिकाली शुद्धद्रव्य के आश्रय से प्रगट होती है।
अतः ध्यातापुरुष भावना भाता है कि मैं तो वह परमपदार्थ हैं, जिसके आश्रय से पर्याय में पवित्रता प्रगट होती है। मैं प्रगट होनेवाली पवित्रता नहीं; अपितु नित्य, प्रकट, परमपवित्र पदार्थ हूँ। मैं सम्यग्दर्शन नहीं; मैं तो वह हैं, जिसके दर्शन का नाम सम्यग्दर्शन है। मैं सम्यग्ज्ञान भी नहीं; मैं तो वह हूँ, जिसके ज्ञान का नाम सम्यग्ज्ञान है। मैं चारित्र भी नहीं; मैं तो वह हूँ, जिसमें रमने का नाम सम्यक्चारित्र है। ध्यातापुरुष अपना अहं ध्येय में स्थापित करता है; साधन में नहीं, साध्य में भी नहीं।
- परमभावप्रकाशक नयकचक्र, पृष्ठ-१०८