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प्रवचनसार
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· अकड़ता हुआ लकड़हारा बोला तो अचंभित होते हुए सेठजी के मुँह से निकला
"बस, दो मुट्ठी चने !”
“हाँ, दो मुट्ठी चने । "
सेठजी ने अपने को सँभाला और कहने लगे :
“दो मुट्ठी चने तो बहुत होते हैं; एक मुट्ठी चने में नहीं दोगे ?”
यद्यपि सेठजी दो मुट्ठी चने तो क्या, दो लाख स्वर्णमुद्राएँ भी दे सकते थे; तथापि उन्हें भय था कि एकदम ‘हाँ’ कर देने से काम बिगड़ सकता है; अत: उन्होंने एक मुट्ठी चने की बात सोच-समझकर हिलाने-डुलाने के लिए ही कही थी; पर लकड़हारा बोला 'अच्छा लाओ, एक मुट्ठी चने ही सही इस मुफ्त के पत्थर के ।”
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इसप्रकार वह अमूल्य चिन्तामणि रत्न उन सेठजी को अपने घर के कोने में बैठे-बैठे बिना कुछ किये विवेक के प्रयोग से सहज ही उपलब्ध हो गया ।
उक्त उदाहरण के माध्यम से यहाँ ज्ञाननय को समझाया गया है।
जिसप्रकार घर के कोने में बैठे-बैठे ही सेठ ने अपने विवेक के बल से मात्र मुट्ठी भर चनों में चिन्तामणि रत्न को प्राप्त कर लिया; उसीप्रकार ज्ञाननय से यह भगवान आत्मा विवेक की प्रधानता से सधनेवाली सिद्धिवाला है।
तात्पर्य यह है कि ज्ञाननय से इस आत्मा की मुक्ति विवेक की प्रधानता पर आधारित है ।
उक्त कथन का आशय यह कदापि नहीं है कि किसी को क्रिया से मुक्ति प्राप्त होती है और किसी को ज्ञान से। जब भी किसी जीव को मुक्ति प्राप्त होती है, तब दोनों ही कारण विद्यमान रहते हैं; क्योंकि अनन्त धर्मात्मक इस भगवान आत्मा में अन्य अनन्त धर्मों के समान एक क्रिया नामक धर्म भी है, जिसके कारण यह भगवान आत्मा अनुष्ठान की प्रधानता से सधनेवाली सिद्धिवाला है और एक ज्ञान नामक धर्म भी है, जिसके कारण यह भगवान आत्मा विवेक की प्रधानता से सधनेवाली सिद्धिवाला है।
इन क्रियाधर्म और ज्ञानधर्म को विषय बनानेवाले नय की क्रमशः क्रियानय और ज्ञाननय हैं।