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परिशिष्ट : सैंतालीस नय
भोक्तृनयेन हिताहितान्नभोक्तृव्याधितवत्सुखदुःखादिभोक्तृ ।।४०।। अभोक्तृनयेन हिताहितान्नभोक्तृव्याधिताध्यक्षधन्वन्तरिचरवत् केवलमेव साक्षि । । ४१ ।।
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इसे और अधिक स्पष्ट करें तो इसप्रकार कह सकते हैं कि यह भगवान आत्मा गुणीनय से गुणग्राही है अर्थात् उपदेश को ग्रहण करनेवाला है और अगुणीनय से गुणग्राही नहीं है, मात्र साक्षीभाव से देखने-जाननेवाला है; कर्तृनय से अपने आत्मा में उत्पन्न होनेवाले रागादि भावों का कर्त्ता है और अकर्तृनय से उनका कर्त्ता नहीं है, मात्र साक्षीभाव से देखने-जानने वाला है। इसीप्रकार भोक्तृनय से अपने में उत्पन्न सुख-दुःख का भोक्ता है और अभोक्तृनय से अपने में उत्पन्न सुख-दुःख का भी भोक्ता नहीं है, मात्र साक्षीभाव से जानने-देखनेवाला है।
इसप्रकार अगुणीनय के साक्षीभाव में गुणग्राहित्व का निषेध है, अकर्तृनय के साक्षीभाव में रागादिभाव के कर्तृत्व का निषेध है और अभोक्तृनय के साक्षीभाव में सुख-दुःख के भोक्तृत्व का निषेध है । इसप्रकार यहाँ गुणीनय अगुणीनय, कर्तृनय-अकर्तृनय एवं भोक्तृनय - अभोक्तृनय - इन छह नयों के माध्यम से भगवान आत्मा के गुणग्राहित्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व एवं इन तीनों के विरुद्ध अगुणग्राहित्वरूप साक्षीभाव, अकर्तृत्वरूप साक्षीभाव एवं अभोक्तृत्वरूप साक्षीभाव को समझाया जा रहा है ।। ३८-३९॥
इसप्रकार कर्तृनय और अकर्तृनय की चर्चा के उपरान्त अब भोक्तृनय और अभोक्तृनय की चर्चा करते हैं
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'आत्मद्रव्य भोक्तृनय से हितकारी - अहितकारी अन्न को खानेवाले रोगी के समान सुख-दुःखादि का भोक्ता है और अभोक्तनृत्य से हितकारी- अहितकारी अन्न को खानेवाले रोगी को देखनेवाले वैद्य के समान केवल साक्षी ही है ।।४०-४१ ॥
जिसप्रकार यदि कोई रोगी हितकारी अन्न को खाता है तथा वैद्य के बताये अनुसार का सेवन करता है तो सुख भोगता है और यदि अहितकारी अन्न को खाता है तथा कुपथ्य का सेवन करता है तो 'दुःख भोगता है; उसीप्रकार यह भगवान आत्मा भोक्तृनय से अपने सदाचरण-दुराचरण से उत्पन्न सुख-दु:ख को, हर्ष-शोक को भोगता है।
तथा जिसप्रकार हितकारी - अहितकारी अन्न को खानेवाले, पथ्य-कुपथ्य का सेवन करनेवाले रोगी को देखनेवाला वैद्य उसके सुख-दुःख को भोगता तो नहीं है, ' परन्तु साक्षीभाव से जानता अवश्य है; ठीक उसीप्रकार यह भगवान आत्मा भी अभोक्तृनय से अपने में उत्पन्न सुख-दु:ख को, हर्ष - शोक को भोगता तो नहीं, पर साक्षीभाव से जानता अवश्य है।