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प्रवचनसार
गुणिनयेनोपाध्यायविनीयमानकुमारकवद्गुणग्राहि ।। ३६ ।। अगुणिनयेनोपाध्यायविनीयमानकुमारकाध्यक्षवत् केवलमेव साक्षि ।। ३७ ।।
इसीलिए यहाँ ईश्वरनय और अनीश्वरनय का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि आत्मद्रव्य ईश्वरनय से धाय की दूकान पर दूध पिलाये जानेवाले राहगीर के बालक के समान परतन्त्रता भोगनेवाला है और अनीश्वरनय से हिरण को स्वच्छन्तदापूर्वक फाड़कर रखा जानेवाले सिंह के समान स्वतन्त्रता को भोगनेवाला है ।। ३४-३५ ॥
इसप्रकार ईश्वरनय और अनीश्वरनय की चर्चा करने के उपरान्त अब गुणीनय और अगुणीय की चर्चा करते हैं -
'आत्मद्रव्य गुणीनय से शिक्षक द्वारा शिक्षा प्राप्त करनेवाले कुमार के समान गुणग्राही है और अगुणीनय से शिक्षक के द्वारा शिक्षा प्राप्त करनेवाले कुमार को देखनेवाले प्रेक्षक पुरुष के समान केवल साक्षी है ।। ३६-३७ ।। "
यहाँ भगवान आत्मा के गुणग्राहक स्वभाव एवं साक्षीभाव स्वभाव को शिक्षक से शिक्षा ग्रहण करते बालक और शिक्षक से शिक्षा ग्रहण करते बालक को वीतरागभाव से अनासक्त भाव से - साक्षीभाव से देखनेवाले पुरुष के उदाहरणों से समझाया जा रहा है।
जिसप्रकार शिक्षक के द्वारा सिखाये जाने पर बालक भाषा आदि सीख लेता है; उसीप्रकार यह भगवान आत्मा भी गुरु के उपदेश को ग्रहण कर ले - ऐसी शक्ति से सम्पन्न है। भगवान आत्मा की इसी शक्ति का नाम गुणीधर्म है और आत्मा के इसी गुणी नामक धर्म को विषय बनानेवाले नय का नाम गुणीनय है।
जिसप्रकार शिक्षा ग्रहण करते बालक को देखनेवाला पुरुष शिक्षा ग्रहण नहीं करता, अपितु मात्र साक्षीभाव से देखता ही रहता है; उसीप्रकार यह भगवान आत्मा पर से कुछ भी ग्रहण नहीं करता, मात्र उसे साक्षीभाव से जानता देखता ही है। भगवान आत्मा की साक्षी भाव से जानने-देखने की इस शक्ति का नाम ही अगुणीधर्म है और इस अगुणी नामक धर्म को विषय बनानेवाले नय का नाम ही अगुणीनय है।
तात्पर्य यह है कि भगवान आत्मा में एक ऐसा धर्म है कि जिसके कारण वह उपदेश ग्रहण करने में समर्थ है और एक ऐसा भी धर्म है कि जिसके कारण वह पर का उपदेश ग्रहण न करके मात्र उसे साक्षीभाव से जान लेता है। इन दोनों धर्मों के नाम ही क्रमशः गुणीधर्म और अगुणधर्म हैं।