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प्रवचनसार
___ ऐसे मातृहीन बालक या कम दूधवाली माताओं के बालक जब अपने परिवारवालों के साथ यात्रा पर जा रहे हों, तो उन्हें भूख मिटाने के लिए रास्ते में आनेवाले गाँवों में होनेवाली धायमाताओं की दुकानों पर निर्भर रहना पड़ता था, जिसमें उन्हें भारी पराधीनता रहती थी।
प्रथम तो अपनी माता का दूध पीने जैसी स्वतन्त्रता धायमाता के दूध पर निर्भर रहने में संभव नहीं है; क्योंकि स्वयं की माता जैसा स्वाभाविक स्नेह एवं चाहे जब दूध पीने की सुविधा धायमाता के यहाँ कैसे प्राप्त हो सकती है ? वह तो अपने बालक की आवश्यकता की पूर्ति के उपरान्त शेष बचे दूध को ही, एक निश्चित समय पर ही, किसी दूसरे बालक को पिला सकती है। दूसरे, दुकान पर जाकर पीना भी तो सुविधाजनक नहीं होता।
तीसरे, बालक यदि पथिक का हो तो वह परतन्त्रता और भी अधिक बढ़ जाती है; क्योंकि भूखे बालक को हर स्थान पर धाय की दुकान मिल जाना सहज संभव तो नहीं है।
इसप्रकार आचार्यदेव ने धायमाता की दुकान पर दूध पिलाये जानेवाले पथिक के बालक का उदाहरण देकर परतन्त्रता के स्वरूप को बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट कर दिया है।
इस भगवान आत्मा को भी संसार-अवस्था में इसीप्रकार की परतन्त्रता का उपभोग करना पड़ता है। यद्यपि इस परतन्त्रता में कर्मोदय निमित्त होता है; तथापि पर के कारण ही आत्मा को परतन्त्रता भोगनी पड़ती हो - ऐसी बात नहीं है; क्योंकि भगवान आत्मा के पर्यायस्वभाव में ही ऐसी विशेषता पड़ी है कि वह स्वयं कर्माधीन होकर मोह-राग-द्वेषरूप परिणमित होता है और परतन्त्रता को भोगता है।
भगवान आत्मा की इस विशेषता का नाम ही ईश्वरधर्म है और इस ईश्वरधर्म को विषय बनानेवाले नय का नाम ईश्वरनय है। अत: कहा गया है कि यह भगवान आत्मा ईश्वरनय से धाय की दुकान पर दूध पिलाये जानेवाले राहगीर के बालक के समान परतन्त्रता भोगनेवाला है। ___ अनन्तधर्मात्मक इस भगवान आत्मा में ईश्वरधर्म के समान एक अनीश्वर नामक धर्म भी है, जिसके कारण यह भगवान आत्मा हिरण को स्वच्छन्दतापूर्वक फाड़कर खा जानेवाले सिंह के समान स्वतंत्रता को भोगनेवाला है। इसी अनीश्वर नामक धर्म को विषय बनानेवाले नय को अनीश्वरनय कहते हैं।
ईश्वरनय को धाय की दुकान पर दूध पिलाये जाने वाले पथिक के बालक का उदाहरण देकर समझाया गया था और अब यहाँ हिरण को स्वच्छन्दतापूर्वक फाड़कर खा जानेवाले सिंह का उदाहरण देकर अनीश्वरनय को समझाया जा रहा है।