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प्रवचनसार
भगवान आत्मा में अन्य अनन्त धर्मों के समान एक काल नामक धर्म भी है और एक अकाल नामक धर्म भी है। आत्मा के इन काल और अकाल नामक धर्मों को विषय बनानेवाले नय ही क्रमश: कालनय और अकालनय हैं।
प्रश्न - कालनय से तो काल आने पर ही मुक्ति होती है; पर अकालनय से तो समय के पूर्व ही मुक्ति हो जाती है न ? क्या इसका अर्थ यह नहीं हो सकता है कि पुरुषार्थहीनों के कार्य तो काल आने पर ही होते हैं, पर पुरुषार्थी जीव तो अपने पुरुषार्थ द्वारा समय से पहले ही कार्यसिद्धि कर लेते हैं।
उत्तर - नहीं, ऐसा कदापि नहीं होता। कार्य तो सभी स्वकाल में ही होते हैं। अन्य अनन्त धर्मों के समान कालधर्म और अकालधर्म भी सभी आत्माओं में समानरूप से एकसाथ विद्यमान हैं। ऐसा नहीं है कि किसी में कालधर्म हो और किसी में अकालधर्म।
मुक्तिरूपी कार्य भी सभी जीवों के स्वसमयानुसार पुरुषार्थपूर्वक ही होता है। ऐसा कभी नहीं होता कि मुक्ति प्राप्त करने के लिए किसी को तो पुरुषार्थ करना पड़े और किसी को बिना परुषार्थ के ही मक्ति हो जावे। ऐसा भी नहीं होता कि किसी की मक्ति तो काल आने पर ही हो और किसी की अकाल में ही हो जावे। जितने भी जीवों की मुक्ति आजतक हुई है या भविष्य में होगी, सभी की मुक्ति आवश्यक पुरुषार्थपूर्वक स्वकाल में ही हुई है और होगी भी पुरुषार्थपूर्वक स्वकाल में ही।
कालधर्म और अकालधर्म प्रत्येक आत्मा में प्रतिसमय विद्यमान हैं और उनके कार्य भी एकसाथ ही होते हैं। अतः मुक्तिरूपी कार्य में कालनय और अकालनय एक ही आत्मा में एकसाथ घटित होते हैं।
'काल माने समय पर और अकाल माने समय से पहले' - यहाँ काल और अकाल का यह अर्थ अभीष्ट नहीं है, अपितु ‘काल माने काललब्धिरूप कारण और अकाल माने काललब्धि के अतिरिक्त अन्य पुरुषार्थादिकारण' - यह अर्थ अभीष्ट है।
यहाँ दिये गये अकृत्रिम गर्मी से पकनेवाले आम एवं कृत्रिम गर्मी से पकनेवाले आम के उदाहरण से भी यही बात सिद्ध होती है। क्योंकि यहाँ अकृत्रिमगर्मी से पकनेवाले आम के पकाव को काल पर आधारित कहा गया है और कृत्रिम गर्मी से पकनेवाले आम के पकाव को अकाल अर्थात् पुरुषार्थादि पर आधारित कहा गया है।
यहाँ यह कदापि अभीष्ट नहीं है कि अकृत्रिम गर्मी से पकनेवाला आम तो समय पर ही