SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 550
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट : सैंतालीस नय ५४५ नियतिनयेन नियमितौष्ण्यवह्निवनियतस्वभावभासि ।।२६।। अनियतिनयेन नियत्यनियमितौष्ण्यपानीयवदनियतस्वभावभासि।।२७।। तो हमें परपदार्थों को जानने की आकुलता ही करना चाहिए और न नहीं जानने का हठ ही करना चाहिए; पर्यायगत योग्यतानुसार जो ज्ञेय ज्ञान में सहजभाव से ज्ञात हो जावें, उन्हें वीतराग भाव से जान लेना ही उचित है; अन्य कुछ विकल्प करना उचित नहीं है; आकुलता का कारण है। आत्मा के इस सहजज्ञानस्वभाव को ही ये छह नय अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। उक्त छह नयों की चर्चा के उपरान्त अब नियतिनय और अनियतिनय की चर्चा करते हैं “आत्मद्रव्य नियतिनय से, जिसकी उष्णता नियमित (नियत) होती है - ऐसी अग्नि की भाँति नियतस्वभावरूप भासित होता है और अनियतिनय से, जिसकी उष्णता नियति (नियम) से नियमित नहीं है - ऐसे पानी की भाँति अनियतस्वभावरूप भासित होता है।" जिसप्रकार उष्णता अग्नि का नियतस्वभाव है; उसीप्रकार भगवान आत्मा का चैतन्यभाव - ज्ञानानन्दस्वभाव नियतस्वभाव है और जिसप्रकार उष्णता पानी का अनियतस्वभाव है; उसीप्रकार राग-द्वेष-मोहरूप अथवा मतिज्ञानादिरूप परिणत होना आत्मा का अनियत स्वभाव है। त्रिकाल एकरूप रहनेवाले स्वभाव को नियतस्वभाव कहते हैं और परिवर्तनशील स्वभाव को अनियतस्वभाव कहा जाता है। उष्णता अग्नि का त्रिकाल एकरूप रहनेवाला स्वभाव है; अत: वह उसका नियतस्वभाव है। इसीप्रकार चैतन्यभाव-ज्ञानानन्दस्वभाव-जानना-देखना भगवान आत्मा का त्रिकाल एकरूप रहनेवाला स्वभाव है, इसलिए वह भगवान आत्मा का नियतस्वभाव है। नियत अर्थात् निश्चित, कभी न बदलनेवाला, सदा एकरूप रहनेवाला और अनियत अर्थात् अनिश्चित, निरन्तर परिवर्तनशील। पानी का नियतस्वभाव तो शीतलता ही है, पर अग्नि के संयोग में आने पर गर्म भी हो जाता है। यह गर्म होना यद्यपि उसका नियतस्वभाव नहीं है, तथापि उसका वह स्वभाव ही न हो - ऐसी बात भी नहीं है, क्योंकि उसके स्वभाव में यदि गर्म होना होता ही नहीं तो वह अग्नि के संयोग में भी गर्म नहीं होता। अग्नि के संयोग में गर्म होना भी उसके स्वभाव का ही अंग है। उसके इस स्वभाव का नाम ही अनियतस्वभाव है, परिवर्तनशील स्वभाव है, पर्यायस्वभाव है।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy